स्वतंत्रता संग्राम की महानायिका दुर्गाबाई देशमुख और अरूणा आसफ अली : आजादी का अमृत महोत्सव
!!देश की आज़ादी के 75 वर्ष!!
"आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज मैं एक बेहद निडर, साहसी, समाज सुधारक और नारी शक्ति की अमिट मिसाल प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिला स्वतन्त्रता सेनानी की बात कर रही हूँ। जिनके रोम रोम में देशभक्ति की भावना समाहित थी। यही वजह है कि वह छोटी सी उम्र से ही स्वतन्त्रता संग्राम में हिस्सा लेने लगी थीं। "दुर्गा बाई देशमुख" - दुर्गाबाई देशमुख की पहचान न एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में है बल्कि वे एक अच्छी समाज सेविका भी थीं, जिन्होंने महिलाओं के जीवन को एक नई दिशा दी है। उस वक्त जब समाज में बेटियों की स्थिति बेहद खराब थी। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को बढावा दिया। महज 10 वर्ष की छोटी सी उम्र में जब बच्चे के अन्दर सोचने समझने की शक्ति विकसित होती है उस समय दुर्गाबाई देशमुख ने आन्ध्र प्रदेश के काकीनाद में "हिन्दी पाठशाला" की आधारशिला रखी थी। तारकेश्वर टाईम्स ने नौ अप्रैल से आजादी के अमृत महोत्सव में 75 वीरांगनाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को आपसे साझा करना शुरू किया है। पांच महान विभूतियों से आपको रुबरु कराने के बाद आज दुर्गाबाई देशमुख और अरूणा आसफ अली से आपका परिचय करा रही हैं - शान्ता श्रीवास्तव
6 - दुर्गाबाई देशमुख ये आन्ध्र प्रदेश की पहली महिला नेता स्वतन्त्रता सेनानी, एक वकील, राजनेता और एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली दुर्गाबाई देशमुख लोक सभा की सदस्य होने के साथ ही "योजना आयोग" की सदस्य भी थीं। इनका जन्म - 15 जुलाई 1909 को आन्ध्र प्रदेश के काकीनाद जिले में राजमंड्री नामक स्थान पर एक मध्यम परिवार में हुआ था। माता का नाम - कृष्णवेनम्मा पिता का नाम - बीवीएन रामाराव था! दुर्गाबाई देशमुख देश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान 1930 से 1933 के बीच तीन बार जेल गयी थीं। एक वकील, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ साथ आन्ध्र महिला सभा, अखिल भारतीय परिषद, नारी रक्षा समिति, विश्वविद्यालय महिला संघ, नारी निकेतन जैसे अनेकों संगठनों के सम्पर्क में रहीं। इनका विवाह 1953 में भारत के भूतपूर्व वित्त मंत्री चिन्तामणि देशमुख के साथ हुआ था। उस समय वे योजना आयोग की सदस्य थीं।दुर्गाबाई देशमुख मात्र 10 वर्ष की छोटी सी उम्र में महिलाओं में हिन्दी शिक्षा के लिये अपने गाँव काकीनाद में एक हिन्दी विद्यालय की नींव रखी और अपनी माँ सहित अपने गाँव की 500 से अधिक महिलाओं को हिन्दी पढाने के साथ खुद को एक सेविका के रूप में तैयार किया। उस समय गाँव में फ्राक पहने एक छोटी सी बच्ची को मास्टरनी के रूप में देख जमनालाल बजाज आश्चर्यचकित हो गये थे। कस्तूरबा गाँधी और सी एफ एंड्रूज के साथ उस समय महात्मा गाँधी जी ने इस छोटी मास्टरनी दुर्गाबाई के गाँव जाकर उनकी हिन्दी पाठशाला का निरीक्षण भी किया था उस समय दुर्गाबाई की उम्र मात्र 12 वर्ष थी। इसी समय दुर्गाबाई गाँधी जी के सम्पर्क में आयी थीं और गाँधी जी के विचारों से बेहद प्रभावित हुई। दुर्गाबाई ने गाँधी जी के सामने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी और अपनी बेहद कीमती वस्तुओं का दान कर खुद को एक सेविका के रूप में समर्पित कर दिया था। इतनी छोटी सी उम्र में दुर्गाबाई का साहस देखकर महात्मा गाँधी जी भी दंग रह गया। काँग्रेस के अधिवेशन में दुर्गाबाई ने जवाहर लाल नेहरू जी को बगैर टिकट के प्रदर्शनी में अन्दर प्रवेश करने से रोक दिया था। नेहरू जी इस छोटी सी लड़की की कर्तव्यनिष्ठा और काम के प्रति जागरूकता देख से काफी प्रभावित हुये और बाद में टिकट लेकर ही अन्दर प्रवेश किया। दुर्गाबाई 20 वर्ष की थीं तब उनके एक के बाद एक दौरे और भाषणों की लहर चारो तरफ फैल गयी। दुर्गाबाई के अद्भुत संगठन एवम् भाषण देने के तरीके को देख सभी लोग चकित रह जाते थे। दुर्गाबाई के इसी साहस के कारण लोग उन्हें "जॉन ऑफ वोर्क" नाम से पुकारने लगे थे। अपने इस साहस के कारण दुर्गाबाई देशमुख पूरे भारतवर्ष में विख़्यात हो गयी। दुर्गाबाई की देशभक्ति की पहचान 1930 में गाँधी जी के "नमक सत्याग्रह" से हुआ। नमक सत्याग्रह के दौरान दुर्गाबाई तीन बार जेल गयी! जेल में असहनीय यातनायें झेलने के बावजूद स्वाभिमानी महिला होने के कारण दुर्गाबाई ने जेल से रिहाई के लिये कभी क्षमा नहीं माँगी। जेल से रिहा होने के बाद दुर्गाबाई ने एम.ए की पढाई की फिर एलएलबी करके वकील बनकर मद्रास उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस की! दुर्गाबाई देशमुख मर्डर केस में वकालत करने वाली पहली महिला वकील थीं। देश की आज़ादी के बाद दुर्गाबाई "सर्वोच्च न्यायालय बार" में सम्मिलित हो गयीं और उस समय दो महान राष्ट्रवादी सहयोगियों टी प्रकाशन और नागेश्वर राम के साथ मद्रास में आन्दोलन संचालित किया तो उन्हें गिरफ्तार करके जेल में बन्द कर दिया गया। जेल से छूटने के बाद भी वह ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण क्रियाकलापों के खिलाफ जन आन्दोलन की और उग्र रूप देने के लिये सतत प्रयास करती रहीं। सन् 1946 में दुर्गाबाई दिल्ली आ गयीं और संविधान सभा की अध्यक्ष बनीं और संविधान निर्माण में अहम भूमिका निभायी। सामाजिक कार्य के क्षेत्र में दुर्गाबाई की अद्वितीय उपलब्धियाँ हैं उन्होंने महसूस किया कि देश की प्रगति पूर्ण रूप से समुदाय के लोगों के उद्धार पर ही निर्भर करती है। दुर्गाबाई देशमुख के लगातार म्हनत व प्रयत्न से महिलाओं के कल्याण के लिये 1941 में "आन्ध्र महिला सभा" की स्थापना हुई बाद में इस सभा की देश के भिन्न भिन्न भागों में शाखा खोली गयी। दुर्गाबाई ने "आन्ध्र महिला" नामक पत्रिका का सम्पादन किया और महिलाओं को प्रेरित किया कि बिना किसी अभिप्राय के बलपूर्वक उनके ऊपर थोपे गये किसी भी सामाजिक कार्यकलाप का खुलकर उन्हें विरोध करना चाहिये। समाज में अभिप्रायपूर्ण परिवर्तन लाने के लिये दुर्गाबाई ने शिक्षा के महत्व को मूल्यांकित करके व उसे बढाने पर बल दिया उन्होंने "आन्ध्र शिक्षा समिति" की स्थापना की। दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्तर्गत "श्री वेंकटेश्वर कालेज" की स्थापना उन्हीं की देन है! आगे उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाते हुये "केन्द्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड" की स्थापना की। आन्ध्र प्रदेश के गाँवों में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये उन्हें "नेहरू साक्षरता पुरस्कार" से नवाजा गया था! सामाजिक कार्यों में उनके योगदान को देखते हुये उन्हें भारत सरकार से पद्मभूषण पुरस्कार समेत यूनेस्को पुरस्कार, जीवन पुरस्कार, जगदीश पुरस्कार, "पॉलजी हाफ मैन" आदि पुरस्कारों से सम्मानित एवम् विभूषित किया गया। दुर्गाबाई देशमुख जी का देहान्त 9 मई 1981 को हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) में हुआ। भारत के लिये दुर्गाबाई देशमुख जी जैसी महिलाओं का जन्म लेना गौरव की बात है! उन्होंने जिस तरह से अपना पूरा जीवन देश की सेवा और महिलाओं के उत्थान के लिये समर्पित कर दिया वह वाकई तारीफ़ेक़ाबिल है। यही नहीं उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अहम भूमिका निभायी जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। उनका साहसी, सौम्य, दृढ इच्छाशक्ति, प्रभावशाली व्यक्तित्व और देशभक्ति से हम सभी को प्रेरणा लेने की ज़रूरत है। जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता की जय!