5000 साल पुराना है सेंगोल का इतिहास, नई संसद में स्थापित हुआ "राजदंड", डॉ.पद्मा ने पीएमओ को दी थी जानकारी

           (अमित कुमार उपाध्याय) 

नई दिल्ली। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने लोकतंत्र के नए मंदिर (नये संसद भवन) में विधि - विधान के साथ सेंगोल "राजदंड" की स्थापना की। सेंगोल का इतिहास आधुनिक तौर पर भारत की आजादी से जुड़ा हुआ है, तो वहीं इसकी प्राचीनता की कड़ियां चोल राजवंश से भी जुड़ती हैं। इसे राजाओं के राजदंड के तौर पर भी जाना जाता है।

          (डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम)          (सिंगोल "राजदंड") 

5000 साल पुराना है सेंगोल का इतिहास, नई संसद में स्थापित हुआ 'राजदंड', डॉ. पद्मा ने पीएमओ को दी थी जानकारी

शरीर पर केसरिया वस्त्र, माथे पर त्रिपुंड चंदन और गले में शैव परंपरा से जुड़ी मालाएं। शनिवार 27 मई 2023 को प्रधानमंत्री आवास में जब इस वेशभूषा और सांस्कृतिक परंपरा की थाती समेटे कुछ लोगों का आगमन हुआ तो समय का वह दौर, उस पल का उदाहरण बन गया जब सत्ता का संगम संस्कृति के साथ होता है। यह विशेष समय था तमिलनाडु के आधीनम महंतों से मुलाकात का। जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि आज मेरे निवास स्थान पर आप सभी के चरण पड़े हैं, ये मेरे लिए सौभाग्य का विषय है। मुझे इस बात की भी बहुत खुशी है कि कल नए संसद भवन के लोकार्पण के समय आप सभी वहां आकर आशीर्वाद देने वाले हैं। इसके बाद 28 मई 2023 रविवार सुबह विधि - विधान के साथ सेंगोल "राजदंड" को संसद के नए भवन में स्थापित किया गया।

         प्राचीन पद्धतियों में दर्ज है सेंगोल

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तमिलनाडु के सदियों पुराने मठ के आधीनम महंतों का आगमन उस परंपरा को फिर से सत्ता का खास अंग बनाने के लिए हुआ है, जिसका लेखा - जोखा हमारी प्राचीन पद्धतियों में दर्ज रहा है। जो इस देश की विरासत रही है। यहां सेंगोल की बात हो रही है, जिसे प्राचीन काल से "राजदंड" के तौर पर जाना जाता रहा है। यह "राजदंड" सिर्फ सत्ता का प्रतीक नहीं, बल्कि राजा के सामने हमेशा न्यायशील बने रहने और प्रजा के लिए राज्य के प्रति समर्पित रहने के वचन का स्थिर प्रतीक भी रहा है।

     आजादी से जुड़ा है सिंगोल का आधुनिक इतिहास

जिस सेंगोल की स्थापना नई संसद में की गयी है, उसका आधुनिक इतिहास भारत की आजादी के साथ जुड़ा हुआ सामने आया है। जब तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर सेंगोल सौंपा गया। वहीं प्राचीन इतिहास पर नजर डालें तो सेंगोल के सूत्र चोल राज शासन से जुड़ते हैं। जहां सत्ता का उत्तराधिकार सौंपते हुए पूर्व राजा, नए बने राजा को सेंगोल सौंपता था। यह सेंगोल राज्य का उत्तराधिकार सौंपे जाने का जीता - जागता प्रमाण होता था और राज्य को न्यायोचित तरीके से चलाने का निर्देश भी।

      मिलता है 5000 साल पुराना इतिहास

रामायण - महाभारत के कथा प्रसंगों में भी ऐसे उत्तराधिकार सौंपे जाने के ऐसे दृष्टांत मिलते रहे हैं। इन कथाओं में राजतिलक होना, राजमुकुट पहनाना सत्ता सौंपने के प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल होता दिखता है। लेकिन इसी के साथ राजा को धातु की एक छड़ी भी सौंपी जाती थी, जिसे राजदंड कहा जाता था। इसका उल्लेख 5000 साल पुराने महाभारत में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के दौरान भी मिलता है। जहां शांतिपर्व में इसके उल्लेख की बात करते हुए कहा जाता है कि 'राजदंड राजा का धर्म है, दंड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है।'

           "राजदंड" की अवधारणा

राजतिलक और राजदंड की वैदिक रीतियों में एक प्राचीन पद्धति का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार राज्याभिषेक के समय एक पद्धति है कि राजा जब गद्दी पर बैठता है तो तीन बार ‘अदण्ड्यो: अस्मि’ कहता है। तब राजपुरोहित उसे पलाश दंड से मारता हुआ कहता है कि ‘धर्मदण्ड्यो: असि’। राजा के कहने का तात्पर्य होता है, उसे दंडित नहीं किया जा सकता है। ऐसा वह अपने हाथ में एक दंड लेकर कहता है। यानि यह दंड राजा को सजा देने का अधिकार देता है, लेकिन इसके ठीक बाद पुरोहित जब यह कहता है कि, धर्मदंडयो: असि, यानि राजा को भी धर्म दंडित कर सकता है। ऐसा कहते हुए वह राजा को राजदंड थमाता है। यानि कि "राजदंड", राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने का साधन भी रहा है। महाभारत में इसी आधार पर महामुनि व्यास, युधिष्ठिर को अग्रपूजा के जरिए अपने ऊपर एक राजा को चुनने के लिए कहते हैं।

          सेम्मई शब्द से बना है सेंगोल

सेंगोल को और खंगालें तो कई अलग-अलग रिपोर्ट में इसकी उत्पत्ति तमिल शब्द 'सेम्मई' से बताई गई है। सेम्मई का अर्थ है 'नीतिपरायणता', यानि सेंगोल को धारण करने वाले पर यह विश्वास किया जाता है कि वह नीतियों का पालन करेगा। यही राजदंड कहलाता था, जो राजा को न्याय सम्मत दंड देने का अधिकारी बनाता था। ऐतिहासिक परंपरा के अनुसार, राज्याभिषेक के समय, राजा के गुरु नए शासक को औपचारिक तौर पर राजदंड सौंपा करते थे।

    कई राजवंशों में खास रहा है "राजदंड" 

राजदंड उन तीन आधारभूत शक्तियों में से एक रहा है, जो राजा और राज्य की संप्रुभता का प्रतीक रही हैं। इनमें राजदंड के अलावा मुकुट या छत्र और पताका भी प्रमुख रहे हैं। जहां पताका के जरिए राज्य की सीमा निर्धारित होती थी, तो वहीं छत्र और मुकुट प्रजा के बीच राजा की मौजूदगी का प्रतीक थी और राजदंड, राजा की आम सभा में न्याय का प्रतीक रहा है। इतिहास के कालखंड से जुड़ी एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजदंड का प्रयोग मौर्य साम्राज्य (322-185 ईसा पूर्व) में भी हुआ करता था। मौर्य सम्राटों ने अपने विशाल साम्राज्य पर अपने अधिकार को दर्शाने के लिए राजदंड का इस्तेमाल किया था। चोल साम्राज्य (907-1310 ईस्वी) के अलावा गुप्त साम्राज्य (320-550 ईस्वी), और विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) के इतिहास में भी राजदंड प्रयोग किया गया है। अभी हाल ही में ब्रिटेन में प्रिंस चार्ल्स का कोरोनेशन करते हुए उनके हाथ में राजदंड की ही प्रतीक एक छड़ी थमाई गई है। ये इस बात की गवाह है कि शाही वस्तुओं में राजदंड सबसे अहम तथ्य और शब्द रहा है, जिसे राजा और राज्य की शक्तियां तय करने की क्षमता मिली हुई है।

             1947 में सामने आया सेंगोल

अभी के सेंगोल की बात करते हुए तथ्यों के तार चोल साम्राज्य के साथ अधिक जुड़े नजर आते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि, सेंगोल का 1947 से जुड़ा जो विस्तृत इतिहास सामने आया है, उसके धागे तमिल संस्कृति की प्राचीनता से जुड़े हैं। अब यह सार्वजनिक कहानी हो चुकी है कि, जब सत्ता के हस्तांतरण का समय आया, तो वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पूर्व पीएम नेहरू से पूछा कि भारतीय परंपराओं के अनुसार देश को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक क्या होना चाहिए। तब पीएम होने वाले नेहरू ने भारत के प्रथम गवर्नर सी राजगोपालाचारी से बात की। उन्होंने ही एक गहन शोध के बाद राय दी कि भारतीय परंपराओं के अनुसार, ‘सेंगोल’ को ऐतिहासिक हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने तमिल संस्कृति और चोल राज परंपरा का ही हवाला दिया। इसके आधार पर, नेहरू ने आधीनम से सेंगोल को स्वीकार किया, जिसे विशेष रूप से तमिलनाडु से लाया गया था। ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि, सी राजगोपालाचारी ने तमिलनाडु के तंजौर के धार्मिक मठ - थिरुववदुथुराई आधीनम से संपर्क किया था। आधीनम के नेता ने उनके कहने के बाद ‘सेंगोल’ की तैयारी शुरू कर दी थी। तंजौर ही इतिहास का तंजावुर है जहां एक समय चोल राजवंश की महान राजधानी थी। 

      सेंगोल में नंदी के होने का अर्थ

सेंगोल के बनाने में जो आकृति और इसकी जैसी नक्काशी - बनावट नजर आती है, उसकी वजह भी यह है कि प्राचीन चोल इतिहास से इसका जुड़ाव रहा है। सेंगोल के सबसे ऊपर बैठे हुए नंदी की प्रतिमा स्थापित है। नंदी की प्रतिमा इसका शैव परंपरा से जुड़ाव दर्शाती है। इसके साथ ही नंदी के होने के कई अन्य मायने भी हैं। हिंदू व शैव परंपरा में नंदी समर्पण का प्रतीक है। यह समर्पण राजा और प्रजा दोनों के राज्य के प्रति समर्पित होने का वचन है। दूसरा, शिव मंदिरों में नंदी हमेशा शिव के सामने स्थिर मुद्रा में बैठे दिखते हैं। हिंदू मिथकों में ब्रह्मांड की परिकल्पना शिवलिंग से की जाती रही है। इस तरह नंदी की स्थिरता शासन के प्रति अडिग होने का प्रतीक है। जिसका न्याय अडिग है, उसी का शासन अडिग है। इसलिए नंदी को सबसे शीर्ष पर स्थान दिया गया है, जो कर्म को सर्वोपरि रखने की प्रेरणा देता है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी इसी आधार पर सेंगोल को निष्पक्ष, न्यायपूर्ण शासन का प्रतीक बताया है।

नंदी की स्थापना एक गोल मंच पर की गई है, यह गोल मंच संसार का प्रतीक है। इसका अर्थ ये लगाया जाता है कि इस संसार में स्थिर, शांतचित्त और कर्मशीलता ही सबसे ऊपर है। इसके अलावा इसी तरह इसमें अन्य धार्मिक प्रतीकों की नक्काशी भी की गई है। सेंगोल की लंबाई का भी खास महत्व है। यह पांच फीट की एक छड़ी नुमा संरचना है। इसे अगर हाथ में सीधा पकड़ कर खड़ा किया जाए तो यह मनुष्य की औसत ऊंचाई के बराबर है। सेंगोल की लंबाई सम्यक दृष्टि का प्रतीक है, जो दिखाता है कि सभी नागरिक एक समान हैं और इनमें जाति, वेश-भाषा, धर्म - पंथ के आधार पर कोई अंतर नहीं है। यह खास बात हमारे संविधान की प्रस्तावना का भी हिस्सा है। 

     सेंगोल में हैं धन की देवी लक्ष्मी 

सेंगोल में गोल हिस्से के सामने वाली चौड़ी पट्टी पर देवी लक्ष्मी की आकृति नक्काशी के जरिए उकेरी गई है। हिंदू मिथकों में देवी लक्ष्मी धन की देवी हैं और राजदंड रूपी सेंगोल में भी वह राज्य के वैभव की प्रतीक हैं। सेंगोल में लक्ष्मी स्वरूप का उकेरा जाना इस बात का संकेत है राजा को कोषागार या राज्य के खजाने का अधिपति भी बनाया जा रहा है. वह कर लेने का अधिकारी है, साथ ही राज्य में किसी को धन-धान्य की कमी न हो, इसे भी सुनिश्चित करने वाला राजा ही है. देवी लक्ष्मी के आस-पास हरियाली के तौर पर फूल-पत्तियां, बेल-बूटे उकेरे गए हैं, जो कि राज्य की कृषि संपदा का प्रतीक हैं।

     इनकी वजह से सामने आ पाया सेंगोल

सेंगोल की पूरी कहानी और इतिहास से लेकर वर्तमान तक सारा ब्यौरा सामने है। लेकिन, अब उन लोगों के बारे में भी बात करना जरूरी हो जाता है, जिनके जरिए इतिहास की यह धरोहर अंधेरे से निकलकर अपने स्वर्णिम वैभव के साथ सामने आ सकी है। इस कड़ी में सबसे पहला नाम आता है प्रख्यात नृत्यांगना डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम का। प्रधानमंत्री कार्यालय को सेंगोल के बारे में करीब 2 साल पहले पद्मा सुब्रमण्यम की एक चिट्ठी के जरिए पता चला था। इसके बाद सेंगोल को ढूंढने का काम शुरू हुआ।

        तमिल संस्कृति में महत्वपूर्ण है सेंगोल

डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम ने बताया, 'यह तमिल में एक लेख था जो तुगलक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। सेंगोल के बारे में आर्टिकल का जो कंटेंट था, उससे मैं बहुत प्रभावित हुई। इसमें लिखा था कि कैसे चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती ने अपने शिष्य डॉ. सुब्रमण्यम को सेंगोल (1978 में) के बारे में बताया, जिन्होंने इसका जिक्र अपनी किताबों में किया था।' उन्होंने बताया, 'तमिल संस्कृति में सेंगोल का बहुत महत्व है। सेंगोल शक्ति, न्याय का प्रतीक है। यह सिर्फ 1,000 साल पहले की कोई चीज नहीं है। चेर राजाओं के सम्बन्ध में तमिल महाकाव्य में भी इसका उल्लेख है।' स्वर्ण राजदंड का पता लगाने में उनकी रुचि कैसे हुई ? इस सवाल का जवाब देते हुए डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम ने बताया, 'मुझे यह जानने में दिलचस्पी थी कि यह सेंगोल कहां है। पत्रिका के लेख में बताया गया था कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जो सेंगोल भेंट किया गया था वह पंडित जी की जन्मस्थली आनंद भवन में रखा गया है। यह वहां कैसे गया और नेहरू और सेंगोल के बीच क्या संबंध थे, यह भी बहुत दिलचस्प है। '

         डॉ. पद्मा ने जताई खुशी

डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम ने कहा कि 28 मई को नए संसद भवन में सेंगोल की स्थापना के लिए होने वाले कार्यक्रमों की श्रृंखला से उन्हें सुखद आश्चर्य हो रहा है। यह हमारे सांसदों को देश की सेवा करने के लिए प्रेरित करेगा. तमिल संस्कृति में सेंगोल के महत्व के बारे में बात करते हुए, डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम ने बताया, 'सेंगोल को सभी तमिल लोग अच्छी तरह से जानते हैं, हालांकि इसका महत्व भुला दिया गया क्योंकि अब कोई राजशाही नहीं है. मुझे लगता है कि सेंगोल की यह अवधारणा सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में थी. लेकिन दक्षिण अपनी विरासत और परंपराओं को संरक्षित करने के लिए अधिक भाग्यशाली रहा है।' पद्मा सुब्रह्मण्यम ने कहा कि उन्हें खुशी है कि नए संसद भवन में सेंगोल को 'भारत के गौरव' के रूप में प्रदर्शित किया जाएगा।

चिट्ठी मिलने के बाद, सरकार ने सेंगोल की खोजबीन शुरू की। इसके लिए संस्कृति मंत्रालय ने एक टीम बनाई। इसमें इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स (IGNCA) के एक्सपर्ट भी मदद कर रहे थे। IGNCA के सचिव प्रो सच्चिदानंद जोशी ने एक मीडिया बातचीत में कहा कि, " हिंसा के कारण, और देश के विभाजन कि वजह से कार्यक्रम को बहुत जल्दबाजी में आयोजित किया गया। यह कोई कानूनी या औपचारिक मामला नहीं था इसलिए इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं रखा गया। इसका नतीजा ये हुआ कि पवित्र सेंगोल और यह समारोह भारत की यादों से गायब हो गया।" शोधकर्ताओं ने नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया के रिकॉर्ड्स, आजादी के वक्त के अखबारों को छान मारा। इससे जो सामने आया, उसके मुताबिक सेंगोल में सोने की परत चढ़ाई गई थी। तब इसमें 15 हजार रुपये का खर्च आया था। इसे चेन्नई के हीरा व्यापारी वुम्मिदी बंगारू चेट्टी एंड सन्स ने बनाया था।

           मिल गया बनाने वालों का पता

वुम्मिदी बंगारू चेट्टी परिवार ने इसकी पुष्टि की थी कि उन्होंने सेंगोल को बनाया। उनके घर में भी कार्यक्रम के दौरान की तस्वीर लगी है। इसे बनाने में 96 साल के वुम्मिदी एथिराजुलु (Vummidi Ethirajulu) और 88 साल के वुम्मिदी सुधाकर (Vummidi Sudhakar) भी शामिल था। वुम्मिदी एथिराजुलु ने उस वक्त को याद करते हुए बताया कि आधीनम किसी की सिफारिश के लिए हमारे पास सेंगोल को बनाने का न्योता लेकर आये थे। वे एक चित्र लेकर आये थे, इसी की तरह इसे बनाना था। यह महत्वपूर्ण स्थान पर जाना था। ऐसे में अच्छी क्वालिटी जरूरी थी। यह चांदी का बना था, इस पर सोने की परत चढ़ाई गई थी। स्वतंत्रता हम सबके लिए गौरवशाली क्षण था। लेकिन जब हमें ये अहम जिम्मेदारी सौंपी गई, तो इसका महत्व हमारे लिए और बढ़ गया था।

आधीनम भी मिले और सेंगोल को मिला खोया वैभव

ज्वैलर्स के सामने आने के बाद आधीनम महंतों की बात फिर से सामने आई। हालांकि उनका जिक्र पहले से सेंगोल के साथ शामिल था। आधीनम शैव परंपरा के अनुयायी थे और पांच सौ साल प्राचीन थे। चोल वंश में सत्ता के हस्तातंरण के वक्त सेंगोल को सौंपा जाता था। इससे पहले इसे धर्मगुरूओं द्वारा विशेष अनुष्ठान से पवित्र किया जाता था। आजादी के बाद राजगोपालाचारी ने तमिलनाडु स्थित थिरुवावदुथुरई आधीनम के प्रमुख से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण के लिए इसी अनुष्ठान को करने का अनुरोध किया था। आधीनम ने इस कार्य को संपन्न करने के लिए अगस्त 1947 में कुछ लोगों के एक विशिष्ट समूह को दिल्ली भेजा था। आज 28 मई रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब देश की नई संसद का उद्घाटन किया, इसी दौरान उन्हें तमिलनाडु में मदुरै आधीनम मठ के प्रधान पुजारी हरिहर देसिका स्वामीगल ने सेंगोल भेंट किया। इन्हें संसद भवन में स्थापित कर दिया गया है। इस तरह आजादी के बाद गुमनामी में खो गए सेंगोल को अब उसका पूरा वैभव मिल रहा है। 

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