पहाड़ से मजबूत इरादे के साथ लड़ी थीं बिश्नी देवी शाह : आजादी का अमृत महोत्सव

              !! देश की आज़ादी के 75 वर्ष !! 

"आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज हैं उत्तराखण्ड की पहली महिला स्वतन्त्रता सेनानी जिन्होंने कुमाऊँ के अल्मोड़ा में फहराया था तिरंगा और आज़ादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखण्ड की पहली महिला आन्दोलनकारी थीं। कहानी है पहाड़ में जन्मी उन महिला की जिसने जीवन के थपेड़ों से हार न मानकर खुद लिखी थी अपनी तक़दीर। महान राष्ट्रभक्त महिला सेनानी हैं "बिश्नी देवी शाह"

                                   प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव

62 - बिश्नी देवी शाह पहाड़ की रहने वाली इस पहाड़ सी मज़बूत आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली गुमनाम महिला सेनानी का जन्म उत्तराखण्ड के बागेश्वर में 12अक्टूबर 1902 को एक सामान्य परिवार में हुआ था। मात्र चौथी कक्षा तक पढने के बाद 13 वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी कर दी गयी। शादी होने के बाद वे अपने ससुराल अल्मोड़ा जाकर रहने लगीं। दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर चुकी बिश्नी देवी शाह भी सामान्य महिलाओं की तरह अपनी गृहस्थी में जुट गयीं। एक अपना छोटा सा घर परिवार हो इससे अधिक उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था, कि चाहरदीवारी के अन्दर रहने वाली एक सामान्य महिला को देश के लिए जीना है बड़े बड़े काम करना है। शादी के तीन साल बाद ही अचानक उनके ऊपर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा उनके पति की मृत्यु हो गयी। पति के जाने के बाद ससुराल वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया और मायके वालों ने तो घर में घुसने तक नहीं दिया था। उत्तराखण्ड में उस ज़माने में पति के निधन के बाद महिलाओं पर अनेकों प्रतिबन्ध लगा दिए जाते थे। समाज में फैली सामाजिक कुरीतियों के कारण ऐसी महिलायें सन्यासिनी बन जाती थीं और उन्हें "माई" कहकर बुलाया जाता था। लेकिन मात्र 16 साल की बिश्नी देवी शाह को सन्यासिनी का जीवन मंजूर नहीं था। उनका जीवन अनमोल था। उन्हें कुछ बड़ा करना था, जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। उन दिनों पूरा भारत आज़ादी के लिए लड़ रहा था इसलिए पति के देहान्त के बाद भी वे अल्मोड़ा में ही रहने लगी तथा एकाकी जीवन यापन करने की बजाय उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़ने का निश्चय किया और 19 वर्ष की आयु में आज़ादी की लड़ाई में कूद गयीं।

अल्मोड़ा के नन्दा देवी मंदिर में आए दिन अँग्रेजों के अत्याचार को खत्म करने के लिए बैठकें और सभायें हुआ करती थीं। उन बैठकों में वे भी जाने लगी और भाग लेने लगीं। आन्दोलनकारियों को प्रोत्साहित करतीं। उनके जेल जाते समय उन पर फूल चढाकर आरती उतारतीं उन्हें उत्साहित करतीं उनका सम्मान करती थीं तथा कुमाऊँनी कवि गिर्दा के राष्ट्रभक्ति गीतों को रात्रि जागरण में गाया करती थीं। जैसे जैसे समय बीतता गया उनके मन में देश भक्ति की भावना बढती गयी और वे स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार प्रसार करने लगीं। महात्मा गाँधी जी की पहली कुमाऊँ यात्रा के बाद पहाड़ की महिलाओं में भी राजनैतिक चेतना का जागरण हुआ कारण था कुमाऊँ यात्रा के दौरान महात्मा गाँधी जी के साथ उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गाँधी जी का साथ होनाा। महात्मा गाँधी जी की सभा में सुनने वाली महिलाओं को लगा कि जब महात्मा गाँधी जी की पत्नी देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जन जागरण के लिए देश के कोने कोने में जा सकती हैं तो उन्हें भी घर से बाहर निकलकर स्वदेशी का जन जागरण करना चाहिए। सन् 1929 - 30 के बीच महिलाओं में स्वाधीनता संग्राम के प्रति जागृति व्यापक होती गयी और 1930 तक पहाड़ की महिलायें भी सीधे आन्दोलन में भाग लेने लगीं। पचीस अक्टूबर 1930 को अल्मोड़ा के नगरपालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय हुआ। इसके लिए स्वयंसेवकों का एक जुलूस शहर में निकाला गया। जिसमें भारी संख्या में महिलायें भी शामिल थीं। जुलूस को बलपूर्वक पुलिस ने रोक दिया। पुलिस और आन्दोलनकारियों में झड़प हो गयी। पुलिस द्वारा किए गए लाठी चार्ज में मोहनलाल जोशी और शान्ति त्रिवेदी गम्भीर रूप से घायल हो गए। जुलूस में शामिल महिलायें घबरायी नहींं। पुलिस द्वारा जुलूस रोके जाने और लाठी चार्ज की सूचना मिलने पर बद्रीदत्त पाण्डेय व देवी दत्त पंत भी अनेक लोगों के साथ घटना स्थल पर पहुँचे जिससे जुलूस में शामिल महिलाओं का हौसला बढ गया।
बिश्नी देवी शाह तथा अन्य महिलायें संगठित हुईं और अल्मोड़ा नगरपालिका में झण्डा रोहण करने में सफल हो गयीं। स्वतन्त्रता आन्दोलन के ही दौरान दिसम्बर 1930 में अँग्रेजी पुलिस द्वारा बिश्नी देवी शाह को गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल भेज दिया गया। जेल में उनको काफी कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ा लेकिन वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। उनके हौसले नहीं डगमगाए उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन से खुद को अलग नहीं किया। जेल से रिहा होने के बाद वे स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार प्रसार में जुट गयीं। वे खादी का प्रचार करने लगीं, जिसमें वे चर्खा बेचने लगीं। उस वक्त (दस रुपये) 10/- का एक चर्खा आता था। उन्होंने चर्खे का मूल्य घटवाकर (पांच रुपये) 5/- करवाया और घर घर जाकर स्वदेशी का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने महिलाओं को चर्खा दिलवाया तथा उन्हें एक समूह में संगठित कर चर्खा कातना भी सिखाया। धीरे धीरे वे अल्मोड़ा के बाहर निकलकर भी यह कार्य करने लगीं। बागेश्वर में जब 02 फरवरी 1931 को महिलाओं ने देश की स्वतन्त्रता की माँग को लेकर जुलूस निकाला तो उसके लिए भी उन्होंने अपनी जमा पूँजी देकर आर्थिक मदद की थी। वह स्वतन्त्रता आन्दोलनकारियों के लिए धन जुटाने, उनके बीच संदेश लाने और ले जाने आदि का कार्य भी करती थीं। स्वतन्त्रता आन्दोलन में लगातार सक्रिय रहने के कारण 07 जुलाई 1933 को पुन: अँग्रेजी सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 200/- के जुर्माने के साथ 09 महीने की सजा देकर फतेहगढ जेल भेज दिया गया। 200/- का जुर्माना उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी राशि थी। बिश्नी देवी शाह के पास इतना पैसा नहीं था कि जुर्माना की धनराशि दे सकें। जिस वजह से उनकी कैद को बढाकर एक साल कर दिया गया। परन्तु स्वास्थ्य खराब होने के कारण जल्द ही जेल से उन्हें रिहा कर दिया गया। जब 1934 में मकर संक्रान्ति के अवसर पर बागेश्वर में उत्तरायणी का मेला लगा तो अँग्रेजी सरकार ने मेले में धारा 144 लगा दी। परन्तु बिश्नी देवी शाह ने धारा 144 की भी परवाह न करते हुए मेला स्थल पर खादी की प्रदर्शनी लगायी। कुमाऊँ में स्वतन्त्रता आन्दोलन अँग्रेजी सरकार के दमन के बाद भी लगातार तेज हो रहा था। आन्दोलन को और तेज करने के लिए 1934 में ही रानीखेत में हरगोविन्द पन्त की अध्यक्षता में काँग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई। जिसमें बिश्नी देवी शाह को महिला कार्यकारिणी में महिला सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया। 23 जुलाई 1935 को अल्मोड़ा में नये काँग्रेस भवन में उन्होंने तिरंगा फहराया। तब कुमाऊँ में जन जागरण के लिए पहुँची महिला स्वतन्त्रता सेनानी विजयलक्ष्मी पंडित ने भी स्वतन्त्रता आन्दोलन में बिश्नी देवी शाह की सक्रिय भूमिका की प्रशंसा की थी। बिश्नी देवी शाह ने 26 जनवरी 1940 को एक बार फिर नन्दा देवी मंदिर अल्मोड़ा के प्रांगण में झण्डारोहण किया तथा 1940 - 41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भागीदारी की। सत्रह अप्रैल 1940 को नन्दा देवी मंदिर अल्मोड़ा के समीप खुलने वाले कताई केन्द्र की संचालिका बनीं। सन् 1942 में काँग्रेस ने "अँग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया और पूरा देश आन्दोलित हो उठा था तो बिश्नी देवी शाह ने इस आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। आखिरकार देश में लगातार चल रहे आन्दोलन के बाद भारत को स्वतन्त्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया। 
15 अगस्त 1947 को देश अँग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ। दिल्ली में लाल किले पर तिरंगा झण्डा फहराया जा रहा था उस दौरान दिल्ली से 378 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा में हाथों में तिरंगा लिए बिश्नी देवी शाह एक (शोभा यात्रा) विशाल जुलूस का नेतृत्व कर रही थींं। देश आज़ाद हुआ। स्वतन्त्र राष्ट्र में जीने का जो सपना देखा था वो भी पूरा हो गयाा। लेकिन देश के लिए अपना सर्वस्व दान करने वाली बिश्नी देवी शाह का आखिरी समय काफी मुश्किलों भरा था। पति के देहान्त के बाद वे अकेली ही रहीं। उनके पीछे उनका खयाल रखने वाला कोई नहीं था। उनके जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें बहुत आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ा था। दस अक्टूबर 1930 को "दैनिक अमृत बाजार पत्रिका" ने उनकी कार्यकुशलता के बारे में लिखा था "समस्त उत्तर प्रदेश में अल्मोड़ा और नैनीताल आगे आए हैं, विशेषकर अल्मोड़ा। जिसमें "बिश्नी देवी शाह" की भूमिका सर्वप्रथम है। बिश्नी देवी शाह अदम्य उत्साह और साहस से युक्त महिला हैं। अपने वैधव्य की रिक्तता को उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़कर पूरा कर लिया।" आखिरकार गुमनामी के अँधेरों में आर्थिक संकट से जूझती हुई 73 वर्ष की आयु में 1974 में अल्मोड़ा में उनका निधन हो गया। अदम्य उत्साह और साहस से युक्त बिश्नी देवी जेल की सजा काटकर जब जेल से बाहर आयीं तो फिर से स्वतन्त्रता आन्दोलन में जुट गयीं और आखिर तक आज़ादी मिलने तक वे आन्दोलन से जुड़ी रहींं। स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी तथा आज़ादी मिलने के बाद भी उन्हें वो महत्व नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। लेकिन अल्मोड़ा के डाक विभाग ने इस गुमनाम नायिका को पहचान दिलाने के लिए लिफाफे पर उनकी फोटो और उनका जीवन परिचय लिखा है। जिससे उनको सही पहचान मिल सके। 
आइए हम महान राष्ट्रभक्त साहसी और बहादुर पहाड़ की रहने वाली पहाड़ सी मज़बूत आज़ादी की लड़ाई में जेल जाने वाली उत्तराखण्ड की पहली महिला स्वतन्त्रता सेनानी बिश्नी देवी शाह जी से प्रेरणा लें! उन्हें प्रणाम करें! सादर नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! भारत माता की जय! वन्दे मातरम! भारत माता जी की जय!

      ➖    ➖    ➖     ➖    ➖

देश दुनिया की खबरों के लिए गूगल पर जाएं

लॉग इन करें : - tarkeshwartimes.page

सभी जिला व तहसील स्तर पर संवाददाता चाहिए

मो. न. : - 9450557628 

शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

रमंति इति राम: , राम जीवन का मंत्र

स्वतंत्रता आंदोलन में गिरफ्तार होने वाली राजस्थान की पहली महिला अंजना देवी चौधरी : आजादी का अमृत महोत्सव

निकाय चुनाव : बस्ती में नेहा वर्मा पत्नी अंकुर वर्मा ने दर्ज की रिकॉर्ड जीत, भाजपा दूसरे और निर्दल नेहा शुक्ला तीसरे स्थान पर