महान स्वतंत्रता सेनानी उमाबाई कुंदापुर : आजादी का अमृत महोत्सव

 

                !! देश की आज़ादी के 75 वर्ष !!

 "आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज देश सेविका महान स्वतन्त्रता सेनानी जिन्होंने सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन की नींव रखी थी। जेल से निकले बेघर स्वतन्त्रता सेनानियों को रहने खाने की व्यवस्था कर उनकी हर संभव मदद की थी। महिलाओं को चाहरदीवारी से बाहर निकालकर स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया था। जिन्हहोंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया था। महान देशभक्त महिला क्रान्तिकारी हैंं - "उमाबाई कुंदापुर"

                                प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव

52 - उमाबाई कुंदापुर एक साहसी महिला स्वतन्त्रता सेनानी जिन्होंने महिलाओं को घर की चाहरदीवारी से बाहर निकालकर आज़ादी की लड़ाई से जोड़ा था। उनका जन्म मंगलोर में 1892 को हुआ था। उनका बचपन का नाम भवानी था। उनकी माता का नाम जुगनाबाई और पिता का नाम गोलीकेरी कृष्णराव था। उनका परिवार मंगलोर से मुम्बई जाकर बस गया था। वहीं बहुत छोटी सी उम्र में ही उनकी शादी मुम्बई के एक समृद्ध परिवार में संजीवराव कुंदापुर से हुई थी। उनके ससुर आनन्दराव कुंदापुर एक सुधारवादी, प्रगतिशील विचारक और महिलाओं के उत्थान में दृढ विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। उनके ही प्रोत्साहन से उमाबाई ने शादी के बाद भी अपनी शिक्षा जारी रखी तथा पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने गौदेवी महिला समाज के माध्यम से महिलाओं को शिक्षित करने में अपने ससुर आनन्दराव कुंदापुर की मदद की थी।

उमाबाई कुंदापुर का उद्देश्य सदैव ही स्त्रियों को शिक्षित करना उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था। अब तक वे किसी भी प्रकार के स्वतन्त्रता संग्राम से नहीं जुड़ी थीं। उसके बाद एक ऐसी घटना घटी जिसने उनके जीवन को पूरी तरह से बदलकर रख दिया था। साल 1920 में लोकप्रिय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी बाल गंगाधर तिलक जी की मृत्यु ने उनपर एक स्थायी छाप छोड़ी थी। तिलक जी की मृत्यु के बाद जब उनकी शवयात्रा निकली तो पूरा मुम्बई सड़कों पर उतर आया था। उसमें उमाबाई और उनके पति भी मौजूद थे। उन दिनों काँग्रेस का गठन और स्वैच्छिक सेवा अनुकरणीय थी। उमाबाई स्वतन्त्रता संग्राम की ओर आकर्षित हुईं और एक स्वयं सेवक बन गयीं। तिलक जी की मृत्यु उनके ह्रदय में देश प्रेम की ज्योति जला गयी थी। उन्होंने काँग्रेस से जुड़ने का फैसला किया और उसमें शामिल हो गयीं। गाँव गाँव जाकर उन्होंने खादी का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया और जागरूकता फैलाई। घर घर जाकर महिला स्वयंसेवकों की भर्ती करना शुरू कर दिया। राजनैतिक गतिविधियों में उमाबाई के पति और पिता समान ससुर ने बहुत सहयोग किया। स्वावलम्बी व निर्भीक बनाने में ससुराल पक्ष के लोगों ने बहुत प्रोत्साहित कियाा। सुखी जीवन अधिक समय तक नहीं चल पाया। उमाबाई मात्र 25 साल की थीं तब ही उनके पति का टीबी की बीमारी होने के कारण देहान्त हो गया।
उमाबाई पर दु:खों का पहाड़ टूट चुका था। इतने कम उम्र में जीवनसाथी का बिछड़ना बहुत बड़ा आघात था। पिता समान ससुर ने ढाढस बँधाया। उमाबाई ने निश्चय कर लिया कि मुम्बई छोड़कर ससुराल हुबली चली जाएंगी। जहाँ उनके परिवार की काफी सम्पत्ति और फैक्ट्री थी। ससुर आनन्दराव और उमाबाई हुबली आ गये जहाँ उन्होंने कर्नाटक प्रेस की शुरूआत की तथा लड़कियों के लिए एक स्कूल भी शुरू कर दिया जिसका नाम रखा "तिलक कन्या पाठशाला"। जिसका नेतृत्व स्वयं उमाबाई ने किया थाा। उमाबाई ने एक और स्वतन्त्रता सेनानी कृष्णाबाई पंजाकर के साथ मिलकर "भगिनी समाज" संगठन की नींव रखी। उमाबाई हुबली आने के बाद भी काँग्रेस से जुड़ी रहीं और पूरे कर्नाटक की यात्रायें कीं। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ सकें। उस दौरान उनका सम्पर्क "हिन्दुस्तानी सेवा दल" के संस्थापक डॉ. एन.एस. हाड़ीकर से हुआ। सेवा दल का काम काँग्रेस पार्टी के लिए स्वयंसेवकों को ट्रेनिंग देकर तैयार करना था। उस ट्रेनिंग में उन्हें ड्रिल, सेल्फ डिफेंस, कैंप में रहना और बुनाई में श्रमदान आदि सिखाया जाता था। डॉ.हार्डीकर उमाबाई के जोश और लोगों के बीच उमाबाई की बढ़ती लोकप्रियता से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उमाबाई को सेवा दल की महिला शाखा की अध्यक्ष बना दिया। उस ज़माने में घर की चाहरदीवारी से बाहर महिलाओं को निकलने की आज़ादी तक नहीं थी। फिर सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग करना बहुत ही मुश्किल था। सेवा दल से महिलाओं को जोड़ना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। साल 1924 में बेलगाम में अखिल भारतीय काँग्रेस अधिवेशन जिसकी अध्यक्षता महात्मा गाँधी ने की थी उस राष्ट्रीय कार्यक्रम आयोजन की डॉ. हार्डिकर और उमाबाई की जिम्मेदारी थी। उमाबाई ने पूरे राज्य का दौरा किया और गाँव गाँव घर घर जाकर महिलाओं को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ने के लिए प्रेरित व जागरूक किया। उमाबाई की मेहनत रंग लाई और महिलाओं ने घर की दहलीज लांघना शुरू कर दिया। बेलगाम में महात्मा गाँधी जी की अध्यक्षता में हुई काँग्रेस के अधिवेशन में हजारों महिलाओं ने भाग लिया। चौपाती पर नमक बनाने के आन्दोलन में सबसे आगे रहने वाली कमला देवी चट्टोपाध्याय को भी उमाबाई से ही प्रेरणा मिली थी। उन्होंने एक बार कहा था कि वे उमाबाई के विनम्र स्वभाव और लोहे की तरह ठोस इरादों से प्रभावित होकर ही स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी थी। पूरे नमक सत्याग्रह उमाबाई एक ठोस ताकत की तरह डटी रहींं और उस वजह से 1932 में ब्रिटिश पुलिस ने उमाबाई को गिरफ्तार कर लिया और चार महीने की जेल हो गयी। उसी बीच पिता समान ससुर की मौत हो गयी। उमाबाई मौत की खबर सुनकर मृत ससुर के पास पहुँचीं। वे पूरी तरह बिखर गयी थीं, तो सरोजिनी नायडू जी जो उसी जेल में थीं उन्होंने ही उमाबाई को सँभाला था।
 चार महीने बाद जब उमाबाई जेल से निकलीं वापस अपने घर आयीं तो ब्रिटिश सरकार ने उनके ससुर के कर्नाटक प्रेस को जब्त कर लिया था और स्कूल को सील कर दिया था। "भगिनी मंडल" जो स्वैच्छिक संगठन था, उसे भी अँग्रेजों ने गैरकानूनी घोषित कर दिया था। लेकिन उमाबाई पीछे नहीं हटीं, न ही हार मानीं। उन्होंने जेल से बाहर निकलने वाले बेघर स्वतन्त्रता सेनानियों के रहने भोजन आदि की व्यवस्था अपने घर में कर दिया और हर स्वतन्त्रता सेनानियों की हर सम्भव मदद करती थीं। सन् 1934 में बिहार में आए भूकम्प में उन्होंने रात रात भर जागकर अपने स्वयंसेवकों के साथ उन्होंने घायल और बेसहारा लोगों की सेवा की। 1942 में उन्होंने बीमारी के चलते भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग नहीं लिया। लेकिन एक बार फिर उन्होंने स्वतन्त्रता सेनानियों की मदद की थीं। उनका घर देश के हर स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए आश्रय था। महात्मा गाँधी जी ने कस्तूरबा ट्रस्ट का गठन किया था। जिसका उद्देश्य स्वयंसेवकों और स्वयंसेविकाओं को प्रशिक्षित करने के लिये बनाया गया था कि वे प्रशिक्षित होकर गाँवों की स्थिति सुधारने और गाँव के लोगों को शिक्षित कर सकें। उन्हें आत्मनिर्भर बना सकें तथा बाल कल्याण व स्वास्थ्य सेवाओं का कार्यक्रम चलाया जाए। उमाबाई का पूरा जीवन देश के लिए समर्पित था। देश की आज़ादी के बाद उमाबाई को राजनैतिक पदों की पेशकश की गयी, परन्तु उन्होंने मना कर दिया। भारतीय राजनेताओं ने उन्हे बड़े ओहदों से नवाजना व पुरस्कृत करना चाहा, तो उन्होंने खुद को देश सेविका बताकर कि जो किया राष्ट्र के लिए किया था और कुछ भी स्वीकारने से मना कर दिया था। उन्होंने अपना जीवन हुबली में अपने छोटे से घर "आनन्द स्मृति" में बिताया था और साल 1992 में भारत की महान बेटी का निधन हो गया। 

आइए हम महान देश सेविका भारत की महान बेटी को प्रणाम करें! सादर नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता जी की जय! 

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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