ताउम्र कुंवारी रहीं स्वतंत्रता सेनानी सुहासिनी गांगुली : आजादी का अमृत महोत्सव

              !! देश की आज़ादी के 75 वर्ष !!

 "आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान क्रान्तिकारियों के बीच "सुहासिनी दीदी" के नाम से जानी जाने वाली महान महिला क्रान्तिकारी जिन्होंने देश की स्वतंत्रता की खातिर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। ज़िन्दगी जेलों में गुज़ार दी और ताउम्र कुँवारी रहीं भारतीय स्वतन्त्रता सेनानी हैं "सुहासिनी गांगुली।" एक महान राष्ट्रभक्त स्वतन्त्रता सेनानी जिनका पूरा जीवन पूरी तरह से अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित था।

                               प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव

46 - सुहासिनी गांगुली का जन्म "खुलना" (बंगाल) में 03 फरवरी 1909 को हुआ था। माता का नाम सरला सुंदरी देवी और पिता का नाम अविनाश चन्द गांगुली था। उनकी पढ़ाई ढाका में हुई थी। उन्होंने ईडन कॉलेज से स्नातक की। उन्होंने अपनी किशोरावस्था अपने गृह नगर ढाका में बिताई। देश की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाने वाली क्रान्तिकारी महिला वीरांगना सुहासिनी गांगुली का जन्म भले ही बंगाल में हुआ था, लेकिन स्वतन्त्रता की लड़ाई उन्होंने पूरे देश भर में लड़ी थी। धनबाद से भी उनका गहरा लगाव था। पढ़़ा़ई पूरी करने के बाद उनकी नौकरी बतौर अध्यापिका कोलकाता के एक मूक बधिर स्कूल में लग गयी। क्रान्तिकारियों के शहर कोलकाता आने से उनकी ज़िन्दगी का मक़सद ही बदल गया था। अपनी नौकरी के दौरान वे उन लड़कियों के सम्पर्क में आयीं जो दिन भर अपनी जान हथेली पर लेकर ब्रिटिश हुकूमत को धूल चटाने के ख़्वाब दिल में लिए घूमती थीं। वे लड़कियाँ थीं छात्री संघ संगठन की जिनमें से एक थीं कमलादास गुप्ता, एक हॉस्टल की वार्डेन जिनके हॉस्टल में बम, गोली आदि क्या नहीं बनता था। दूसरी थीं प्रीति वाड्डेदार जो मास्टर सूर्यसेन के क्रान्तिकारी गुट की थीं।

एक तैराकी स्कूल में सुहासिनी गांगुली कल्याणीदास और कमलादास के सम्पर्क में आयीं और क्रान्तिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। सन् 1929 में खुलना के ही विप्लवी दल के नेता महान क्रान्तिकारी रसिकलाल दास जी के सम्पर्क में आने से वो क्रान्तिकारियों के संगठन "जुगान्तर पार्टी" से जुड़ गयीं। एक क्रान्तिकारी हेमन्त तरफदार के सम्पर्क में आने से उनके क्रान्तिकारी विचार मज़बूत होते चले गए और वे पूरी तरह से सक्रिय हो गयीं। उनकी बढ़ती सक्रियता और क्रान्तिकारियों से मेलजोल ब्रिटिश सरकार से छुपा नहीं रह पाया। सुहासिनी गांगुली और उनके क्रान्तिकारी साथियों की समझ में आ चुका था कि पुलिस की नजरों में आ चुके हैं। अब उनकी हर हरक़त पर नज़र रखी जा रही थी।
वो जहाँ जाती थीं, जिससे मिलती थीं कोई न कोई उनपर नज़र रख रहा होता। 1930 के चटगाँव शस्त्रागार कांड के बाद बहुत से क्रान्तिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर पकड़ से बचने के लिए चन्दननगर चले गए थे तो उन क्रान्तिकारियों को सुरक्षा देने के लिए सुहासिनी गांगुली भी कोलकाता से चन्दननगर पहुँच गयीं। हमेशा खादी पहनने वाली आध्यात्मिक प्रवृत्ति की सुहासिनी गांगुली दिन भर एक सामान्य अध्यापिका के रूप में नौकरी पर जातीं और शाम से सुबह तक वे क्रान्तिकारियों की सहायता करती थीं। देश को आज़ाद कराना ही उनका एक मात्र सपना था। क्रान्तिकारी उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। घर में वे शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बनकर रहती थीं, ताकि किसी को संदेह न वह।  घर एक गृहस्थ का घर लगे और वो क्रान्तिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। गणेश घोष, लोकनाथ, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रान्तिकारी वहाँ बारी बारी से आकर ठहरते थे। सुहासिनी गांगुली का घर सभी क्रान्तिकारियों के पनाह का ठिकाना बन गया था।
सभी क्रान्तिकारियों के बीच वे "सुहासिनी दीदी" के तौर पर जानी जाने लगी। हर वक़्त हर समस्या के समाधान के साथ उपलब्ध रहने वाली सुहासिनी दीदी का बिल्कुल महान क्रान्तिकारी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू जी की "दुर्गा भाभी" की तरह क्रान्तिकारियों के नेटवर्क और संगठन के परदे के पीछे चलाने में बड़ा हाथ रहता था। उनपर कोई भी आसानी से शक नहीं करता था। सब करने के बाद भी अँग्रेज अधिकारियों को उनपर संदेह हो गया और चौबीस घंटे निगाह रखी जाने लगी। 01 सितम्बर 1930 को ब्रिटिश पुलिस ने उनके मकान पर घेरा डाल दिया। आमने सामने के मुठभेड़ में गोली लगने से क्रान्तिकारी जीवन घोषाल मारे गए।

अनन्त सिंह पहले ही आत्मसमर्पण कर चुके थे। शेष साथी और सुहासिनी दीदी अपने तथाकथित पति शशिधर आचार्य जी के साथ गिरफ्तार कर ली गयीं और हिजली जेल भेज दिया गया, जहाँ पहले से ही क्रान्तिकारी इन्दुमति सिंह भी थीं। आठ साल की लम्बी अवधि के बाद 1938 में वे जेल से रिहा की गयीं। लड़ाई अभी थमी नहीं थी। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने फिर से भाग लिया और फिर से जेल गयीं तो 1945 में छूटीं। वे जेल से जब बाहर आयीं तो हेमन्त तरफ़दार धनबाद के एक आश्रम में सन्यासी भेष में रह रहे थे। सुहासिनी गांगुली भी उसी आश्रम में पहुँच गयीं और आश्रम की ममतामयी सुहासिनी दीदी बनकर रहने लगीं। बाकी का जीवन अपना उन्होंने उसी आश्रम में बिता दिया। कभी भी उन्होंने अपने परिवार और अपनी ज़िन्दगी के बारे में नहीं सोचा। यहाँ तक कि देश की आज़ादी के बाद भी नहीं। कैमरे से भी वो काफी दूर रहती थीं। उनकी एक मात्र तस्वीर मिलती है जो उस वक़्त किसी ने शायद चुपचाप खींची होगी जब वो आश्रम में ताड़ के वृक्षों के बीच ध्यान मुद्रा में तल्लीन थीं, आँखें बन्द थी। आज़ादी के बाद उन्होंने अपना सारा जीवन सामाजिक आध्यात्मिक कार्यों में ही लगा दिया। उन्हें पॉलीटिक्स रास नहीं आई थीं। भारतवर्ष की आजादी उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना था, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। आजाद भारत का सूरज उन्होंने वहीं से देखा था। उनके उस त्यागमय जीवन और साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए कोलकाता की एक सड़क का नाम "सुहासिनी गांगुली सरनी" रखा गया था। 23 मार्च 1965 को एक सड़क दुर्घटना होने के कारण 56 वर्ष की आयु में कोलकाता अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। 

 अपना सारा जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित कर देने वाली महान राष्ट्रभक्त महिला क्रान्तिकारी सुहासिनी गांगुली उर्फ - सुहासिनी दीदी के प्रेरणादायी जीवन से प्रेरणा लें! सैल्यूट करें! सादर नमन! भावभीनी श्रद्धांजलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता जी की जय!

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