अजीजन बाई - मस्तानी टोली लेकर लड़ी थी आजादी की लड़ाई : आजादी का अमृत महोत्सव

             !! देश की आज़ादी के 75 वर्ष !!

 "आज़ादी का अमृत महोत्सव" में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश की आज़ादी की लड़ाई में योगदान करने वाली महिला क्रान्तिकारियों में एक ओर कुलीन परिवारों की सम्भ्रान्त महिलायें थीं तो वहीं दूसरी तरफ तवायफों और नर्तकियों ने भी आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान किया है। उन्हीं वीरांगनाओं में एक ऐसी वीरांगना हैं जो पेशे से एक नर्तकी थी। परन्तु अपनी राष्ट्र भक्ति के कारण अपनी सारी सम्पत्ति के साथ साथ देश के लिये हँसते हँसते अपने जीवन का भी बलिदान दे दिया। तारकेश्वर टाईम्स अब तक 21 वीरांगनाओं की वीरता की कहानी आपके सामने प्रस्तुत कर चुका है। आजादी का अमृत महोत्सव में तारकेश्वर टाईम्स 75 वीरांगनाओं के संघर्षों की गाथा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है। 

                                    प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव

22 - "अजीजनबाई" - 1857 प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन में बढ चढकर हिस्सा लेने वाली अजीजनबाई का जन्म - मध्य प्रदेश के मालवा राज्य के राजगढ नगर के सबसे बड़े ज़ागीरदार व ब्राम्हण परिवार में 22 जनवरी 1824 को हुआ था। पिता का नाम - शमशेर सिंह था। पिता ने अपनी रूपवती इकलौती लाडली बेटी का नाम प्यार से "अंजुला" रखा था। अंजुला बचपन से ही झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह रहना पसन्द करती थी। वह पुरूषों के लिबास पहनती अपने पास हमेशा एक बंदूक रखतीं और सैनिकों के साथ घोड़े की सवारी करती थीं। एक दिन वे अपनी सहेलियों के साथ "हरा देवी" के मंदिर में लगे मेले में मेला घूमने गयीं। मेले में उपस्थित अँग्रेज सिपाही अंजुला के रूप सौन्दर्य को देख उन्हें अगवा कर लिये। अँग्रेज सिपाही अंजुला को लेकर एक नदी पर बने पुल से गुज़र रहे थे कि मौका देख अँग्रेज सिपाहियों के चंगुल से मुक्त होने के लिये अंजुला नदी में कूद गयीं। कुछ देर बाद अँग्रेज सिपाही वहाँ से चले गये तो एक पहलवान नदी में कूदकर अंजुला की जान बचायी। वह पहलवान कानपुर के एक चकला घर के लिये काम करता था। उसने अंजुला को वहीं ले जाकर बेच दिया। अपने पिता की इकलौती लाडली अंजुला अब अजीजनबाई बन चुकी थी।

अजीजनबाई एक प्रसिद्ध नर्तकी थी। अपने नृत्य कला और अपनी सुरीली आवाज़ के जादू से जल्द ही शोहरत, हवेली, नौकर-चाकर आदि सब कुछ हासिल कर ली थी। देश की प्रसिद्ध नर्तकियों में उनका नाम था, परन्तु वे सिर्फ नर्तकी बनकर नहीं रहना चाहती थीं। देश की आजादी के लिये भी कुछ करना चाहती थींं। 10मई 1857 प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन का बिगुल बज चुका था। क्रान्ति की चिंगारी बढते बढते कानपुर तक दस्तक दे चुकी थी। नाना साहब, तात्या टोपे, अजीमुल्ला खाँ जैसे कई बड़े क्रान्तिकारी थे, जिनके नाम से ही अँग्रेज काँपते थे। अजीजनबाई मूलगंज में रहती थीं। अँग्रेज अधिकारी अजीजनबाई का मुज़रा सुनने आया करते थे। जब तांत्या टोपे को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने क्रान्तिकारी साथियों के साथ अँग्रेजों पर हमला कर दिया। तात्या टोपे व उनके साथी क्रान्तिकारियों को देख अँग्रेज वहाँ से भाग गयेे। तांत्या टोपे की नज़र अजीजनबाई पर पड़ी, तो वे होलिका दहन पर बिठुर आने का न्योता दिये। अजीजनबाई ने आमन्त्रण स्वीकार कर ली। उन्होंने होलिका दहन पर अपने नृत्य से सबका दिल जीत लिया। तांत्या टोपे जब उन्हें ईनाम में पैसे देने लगे तो वह बोलीं - अगर कुछ देना चाहते होो, तो अपनी सेना की वर्दी दे दो। यह सुनकर तांत्या टोपे प्रसन्न हो गये और मुखबिर के रूप में अजीजनबाई को अपनी सेना में शामिल कर लिया।

अजीजनबाई ने मूलगंज में होली मिलन के रूप में एक स्पेशल नृत्य कार्यक्रम रखा और अँग्रेज अधिकारियों को भी बुलाया। लेकिन वहाँ पहले से ही घात लगाये क्रान्तिकारी बैठे हुये थे और अँग्रेजों के आते ही उन पर हमला कर मौत के घाट सुला दियाा। नाना साहब को जब अजीजनबाई के बारे में पता चला तो वे बहुत प्रसन्न हुये। उन्होंने अजीजनबाई को अपनी धर्म बहन बना लिया। इससे अजीजनबाई भी बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति देश की आज़ादी की लड़ाई के लिये नाना साहब को दान कर दी और अँग्रेजों का विनाश करने में जुट गयीं। अपनी साथी लगभग 400 तवायफों को लेकर एक "मस्तानी टोली" बनायी। तांत्या टोपे ने इस टोली की महिलाओं को युद्ध कला और हथियार चलाने के लिये प्रशिक्षित किया। नाना साहब के आहवान पर उन्होंने एक महिला सशस्त्र सेना दल का भी गठन किया और उसकी कमान सँभाली। अजीजन बाई ने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिये घुँघरू उतार दिये और हाथों में तलवार उठाकर पुरूष क्रान्तिकारियों के कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ बैठ अँग्रेजों के विनाश की रणनीति बनातीं। ये दबी शोषित महिलाओं को सशक्त बनाती थीं। फिरंगियों से टक्कर लेने के लिये मस्तानी टोली की महिलायें सैनिक वेश भूषा में घोड़ों पर सवार होकर बस्तियों में जातीं और स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के लिये लोगों को उत्साहित करतीं। नौजवानों को आमन्त्रित करतीं। दिन में अँग्रेजों से मोर्चा लेतीं तथा रात में छावनी में मुजरा करके गुप्त सूचनायें एकत्र करके नाना साहब को भिजवातीं। साथ ही युद्ध में घायल सैनिकों के घाव पर मरहम पट्टी कर उनकी सेवा करतीं। फल, मिष्ठान, भोजन आदि सैनिकों में वितरण करतीं। अपनी मोहक अपनत्वभरी मुस्कान से उनकी पीड़ा हरने की कोशिश करतीं।
देशभक्तों के लिये वे जितनी मृदु थींं, युद्ध से विमुख होकर भागने वालों के साथ उतनी ही कठोरता से पेश आतीं। वीरों को प्रेम पुरस्कार मिलता जबकि कायरों को धिक्कार। ऐसी सुन्दरियों के तीखे शब्द वाणी और उपेक्षित निगाहों से अपमानित होने की अपेक्षा सैनिकगण रणभूमि में लड़ते लड़ते प्राण गवां देना ज्यादा बेहतर समझते थे। अजीजनबाई के सुन्दर मुख की मुस्कुराहटभरी चितवन युद्धरत सिपाहियों को प्रेरणा से भर देती थीं। एक जून 1857 को नाना साहब, तात्या टोपे, अजीमुल खाँ आदि क्रान्तिकारियों ने गंगा जल को साक्षी मानकर मस्तक पर गंगा जल लगाते हुये अँग्रेजों को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। इन क्रान्तिकारियों के साथ अजीजनबाई भी थीं। इस समय तक वे तात्या टोपे की बहुत विश्वासपात्र हो चुकी थीं। इन लोगों ने 1857 में बिठुर में अँग्रेजों को ज़ोरदार टक्कर देते हुये विजय प्राप्त की। नाना साहब को बिठुर का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दििया। परन्तु यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पायी। 16 अगस्त 1857 को बिठुर में अँग्रेजों ने पुन: आक्रमण कर दिया दोनों सेनाओं में पुन: भीषण युद्ध हुआ जिसमें क्रान्तिकारी परास्त हो गये। इन दोनों ही युद्धों में अजीजनबाई की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका थी। नवाबगंज और बिठुर के बीच अँग्रेज सिपाहियों को उन्होंने मौत के घाट उतार दिया था। इन युद्धों के दौरान अजीजनबाई ने सिद्ध कर दिया था कि वह "वारांगना" नहीं अपितु "वीरांगना" हैै। बिठुर में हुये युद्ध में पराजित होने के बाद नाना साहब और तात्या टोपे पलायन कर गये। परन्तु अँग्रेजों की एक दूसरी टुकड़ी ने अजीजनबाई को पकड़ लियाा। इतिहासकारों के अनुसार - युद्ध बंदिनी के रूप में उन्हें जनरल हेनरी हैवलॉक के सामने पेश किया गया।
अजीजनबाई की अप्रतिम सौन्दर्य पर अँग्रेज जनरल मुग्ध होकर उनसे अजीमुल्लाह का पता बताने के लिये तथा माफी माँगने पर छोड़ देने का प्रस्ताव दिया। लेकिन अजीजनबाई ने पता बताने और क्षमा माँगने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं उस क्रान्तिकारी देशभक्त शेरनी ने हुंकार भरकर यह भी कहा कि "माफी तो अँग्रेजों को हम भारतीयों से माँगनी चाहिये, जिन्होंने भारतवासियों पर इतने ज़ुल्म किये हैं। उनके इस अमानवीय कृत्य के लिये वह जीतेजी उन्हें कभी माफ नहीं करेगी।" यह कहने का अंजाम भी अजीजनबाई को पता था, लेकिन आज़ादी की उस दीवानी ने इसकी कतई परवाह नहीं की। एक नर्तकी से ऐसा जवाब सुनकर अँग्रेज जनरल हेनरी हैवलॉक तिलमिला गया और उन्हें मौत के घाट उतारने का आदेश दे दिया। कैद में उनके साथ क्रूरता की हद पार कर दी गयी और आदेश मिलते ही अँग्रेज सैनिकों ने गोलियों से उनके शरीर को छलनी कर दिया। उनके शरीर के चिथड़े हो गये लेकिन अजीजनबाई की गाथा अमर हो गयी। देशभक्त अजीजनबाई आज़ादी के दीवानों के लिये प्रेरणा बन गयीं। आइये आज़ादी के आन्दोलन की रणबाँकुरी, महिला सशक्तिकरण की प्रतीक, अमर शहीद वीरांगना की राष्ट्र भक्ति को सलाम करें! सादर नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता जी की जय!

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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