स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय क्रांति की मां भीकाजी कामा @ आजादी का अमृत महोत्सव

 

              !!देश की आज़ादी के 75 वर्ष!! 

आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज- "आगे बढो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हम हिन्दुस्तानियों का है!" नारा देने वाली स्वराज के लिये आवाज उठाने वाली उस महान क्रान्तिकारी महिला की मैं बात कर रही हूँ जिन्होंने विदेश की धरती पर भारत का पहला राष्ट्र ध्वज फहराया था। प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव

10 - "भीकाजी कामा" भारतीय मूल की फ्रांसीसी महिला थीं, जिन्होंने दुनिया के अलग अलग देशों में जाकर भारत की आज़ादी के लिये माहौल बनाया था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रवादी आन्दोलन की प्रमुख नेता रहीं भीकाजी कामा का जन्म - 24 सितम्बर 1861 को बम्बई (मुम्बई) में पारसी समुदाय के एक अमीर एवम् मशहूर शख़्सियत भीकाई सोराब जी पटेल के घर में हुआ था। पिता- सोराब फरंजि पटेल (प्रसिद्ध व्यापारी) थे। माता का नाम- जैजीबाई सोराब जी था। आज देश में कई मार्ग और इमारतें आदि इनके नाम से हैं पर आज़ादी की लड़ाई में उनके अमूल्य योगदान के बारे में जानकारी कम ही लोगों को है। इनका परिवार आधुनिक विचारों वाला था। उसका लाभ इनको मिला।

भीकाजी कामा अपना ज्यादा समय सामाजिक कार्यों में ही देती थीं। इनकी पढाई एलेक्जेंड्रा नेटिव गर्ल्स संस्थान से हुई। वह शुरू से ही तेज दिमाग वाली और भावुक थीं। हमेशा अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वाली गतिविधियों में लगी रहती थीं। उनकी शादी सन् 1885 में रूस्तम कामा (समाज सुधारक) से हुई थी। जब देश परतन्त्रता झेल रहा था। सामाजिक स्तर पर पिछड़ापन और लड़कियों को अभिशाप माना जाता था। ऐसे समाज में भीकाजी कामा ने अपने अस्तित्व को चुनौती से लड़ते हुये स्वतन्त्रता की लड़ाई में अपनी महती भूमिका निभाई। देश की आज़ादी को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाली दृढ विचारों वाली भीकाजी कामा ने 22अगस्त 1907 में स्टूटगार्ट जर्मनी में आयोजित "इण्टरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस कांफ्रेन्स" में देश का पहला झण्डा फहराकर अँग्रेजों को कड़ी चेतावनी दी थी। मैडम कामा पर किताब लिखने वाले रोहतक एम.डी. विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रोफेसर बी.डी.यादव जी बताते हैं कि उस इण्टरनेशनल सोशलिस्ट कांँग्रेस कान्फ्रेन्स में हिस्सा लेने वाले सभी लोगों के देशों के झण्डे फहराये गये थे और भारत के लिये ब्रिटेन का झण्डा था उसको नकारते हुये भीकाजी कामा ने अपने साथियों की मदद से राष्ट्र ध्वज बनाया और भारत का झण्डा फहराया था।
 झण्डा फहराते हुये भीकाजी कामा ने जबरदस्त भाषण दिये थे और कहा था कि "ऐ संसार के कॉमरेड्स देखो यह भारत का झण्डा है। यही भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है! इसे सलाम करो! ! अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि भारत में ब्रिटिश शासन रहना "मानवता के नाम पर कलंक है!" कॉन्फ्रेन्स में मौज़ूद लोगों से उन्होंने भारत को गुलामी की जंज़ीरों से मुक्त कराने के लिये सहयोग की अपील की और भारतवासियों से कहा था कि "आगे बढो, हम हिन्दुस्तानी हैं! हिन्दुस्तान हम हिन्दुस्तानियों का है!"
 ये वो वक़्त था जब दो साल पहले सन 1905 में भारत में बंगाल प्रान्त का बँटवारा हुआ था, जिसकी वजह से देश में राष्ट्रवाद की लहर दौड़ गयी थी। महात्मा गाँधी जी अभी दक्षिण अफ्रीका में ही थे पर बँटवारे से उमड़े गुस्से में बंगाली हिन्दुओं ने "स्वदेशी" को तरजीह देने के लिये विदेशी कपड़ों का बहिष्कार शुरू कर दिया था। उस समय मशहूर बंगाली उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी की किताब "आनन्द मठ" से निकला गीत "वन्दे मातरम" राष्ट्रवादी आन्दोलनकारियों में भी काफी लोकप्रिय हो गया था। भीकाजी कामा ने जो राष्ट्र ध्वज फहराया था, उस झण्डे पर भी "वन्दे मातरम" लिखा था। इसमें हरी पीली लाल पट्टियाँ थीं। हरी पट्टी पर आठ कमल के फूल आठ प्रान्तों को दर्शाते थे। लाल पट्टी पर सूरज और चाँद बना था। सूरज हिन्दू धर्म और चाँद इस्लाम धर्म का प्रतीक था। ये झण्डा अब पूणे की केसरी मराठा लाइब्रेरी में प्रदर्शित है। इसके बाद भीकाजी कामा ने जेनिवा से "वन्दे मातरम" नाम का क्रान्तिकारी जर्नल छापना शुरू किया। इसके मास्टहेड पर नाम के साथ उसी झण्डे की छवि छापी जाती रही जिसे भीकाजी कामा ने फहराया था। भीकाजी कामा ने स्वतन्त्रता की लड़ाई में बढ चढकर हिस्सा लिया। जब देश में सन 1896 में प्लेग की बीमारी ने अपना प्रकोप दिखाया तो भीकाजी कामा ने अपनी जान की परवाह किये बगैर लोगों की खूब सेवा की थी।
 पीड़ितों की सेवा करते हुये वे खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गयी थीं, तो इलाज के लिये यूरोप गयीं और इलाज होने पर ठीक हो गयीं और वहाँ वे मशहूर भारतीय क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा, हरदयाल और वीर सावरकर से मिलीं और उनसे बेहद प्रभावित हुईं। ये दादा भाई नौरोजी की निजी सचिव भी बनीं। तबियत ठीक होने के बाद वे भारत जाने का खयाल छोड़ लन्दन में बस गयीं और वहीं अन्य क्रान्तिकारियों के साथ भारत की आज़ादी के लिये अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन बनाने के काम में जुट गयीं। इस दौर में कई पारसी शख़्सियतों पर शोध करने वाले लेखक केई एडुल्जी के भीकाजी कामा पर लिखे गये विस्तृत लेख के मुताबिक पहले विश्वयुद्ध के दौरान मैडम भीकाजी कामा दो बार हिरासत में ली गयीं। ब्रिटिश सरकार की उनपर पैनी नज़र रहती थी। उनके लिये भारत लौटना बेहद मुश्किल सा हो गया था। आखिरकार भीकाजी कामा सन 1909 में पेरिस चली गयीं, जहाँ से उन्होंने "होमरूल लीग" की शुरूआत की।
 उनका प्रिय नारा था - "भारत आज़ाद होना चाहिये! भारत एक लोकतंत्र होना चाहिये! भारत में एकता होनी चाहिये! 30 सालों से भी ज्यादा मैडम भीकाजी कामा ने यूरोप और अमेरिका में भारत की आज़ादी के हक़ की माँग बुलन्द की थी। भीकाजी कामा जब फ्रांस में थीं, तब अँग्रेजी सरकार ने उन्हें वापस बुलाने की माँग की। मगर फ्रांस की सरकार ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसके बाद अँग्रेजी सरकार ने भारत में उनकी सम्पत्ति को अपने कब्ज़े में ले लिया और उनके भारत आने पर रोक लगा दी। सन 1935 में राष्ट्रवादी काम छोडने की शर्त पर उन्हें वतन लौटने की इजाज़त मिली तो भीकाजी कामा भारत आयीं उसके बाद तबियत खराब होने से 13 अगस्त 1936 को मुम्बई के पारसी जनरल अस्पताल में उनका देहान्त हो गया। देहान्त के वक्त उनकी जुबान पर आखिरी शब्द थे "वन्दे मातरम" मैडम भीकाजी कामा के सम्मान में भारत में कई स्थानों और गलियों का नाम उनके नाम पर रखा गया।

 26 जनवरी 1962 में भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में उनके नाम का डाक टिकट शुरू किया। भारतीय तटरक्षक सेना में भी कई जहाजों का नाम उनके नाम से रखा गया। साहसी महिला ने आदर्श और दृढ-संकल्प के बल पर निरापद तथा सुखी जीवन वाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरूद्ध क्रान्तिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया। भीकाजी कामा का बहुत बड़ा योगदान साम्राज्यवाद के विरूद्ध विश्व जनमत जागृत करना तथा विदेशी शासन से मुक्ति के लिये भारत की इच्छा को दावे के साथ प्रस्तुत करना था। मैडम भीकाजी कामा के साथी इन्हें भारतीय क्रान्ति की "माँ" मानते थे। जबकि अँग्रेज इन्हें कुख़्यात महिला, ब्रिटिश विरोधी अराजकतावादी और खतरनाक क्रान्तिकारी कहते थे। आइये इस महान क्रान्तिकारी मैडम भीकाजी कामा "भारतीय क्रान्ति की माँ" को हम प्रणाम करें! सादर कोटि कोटि नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता की जय!

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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