महान स्वतंत्रता सेनानी रानी गाइदिनल्यू : आजादी का अमृत महोत्सव

               !! देश की आज़ादी के 75 वर्ष !! 

"आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज भारत की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्तिकारी आन्दोलन चलाने वाली एक आदिवासी स्वतन्त्रता सेनानी जिन्हें "नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई" के नाम से जाना जाता हैं जिनका मानना था कि "अपनी संस्कृति, भाषा और अपनी मिट्टी को नज़रअंदाज करने का मतलब होगा अपनी पहचान को गँवा देना" तारकेश्वर टाईम्स भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर मनाए जा रहे आजादी के अमृत महोत्सव मे अवसर पर 75 वीरांगनाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व से आपको रुबरू करा रहा है। अब तक 17 महान विभूतियों के बारे में हम आपको अवगत करा चुके हैं। 

                          प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव 

   18 - "रानी गाइदिनल्यू" - "पद्म भूषण" से सम्मानित रानी गाइदिनल्यू का जन्म - मणिपुर के ग्राम - नुंग्काओं में 26जनवरी 1915 को हुआ था। इनकी माता का नाम - करोटलियेनलिउ और पिता का नाम - लोथानाग था। वह बचपन से ही स्वतन्त्र और स्वाभिमानी स्वभाव की थीं। उस क्षेत्र में स्कूलों की कमी के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं हो पायी।

मात्र 13 वर्ष की उम्र में गाइदिनल्यू अपने चचेरे भाई व स्थानीय नागा नेता जादोनाग के सम्पर्क में आयीं। जादोनाग उस समय मणिपुर से अँग्रेजों को बाहर निकालने के लिये प्रयत्न कर रहे थे। जादोनाग का आन्दोलन एक आदिवासी धर्म का पुनरूद्धार था। जादोनाग की विचारधारा और सिद्धान्तों से प्रेरित होकर गाइदिनल्यू जादोनाग की शिष्या बन गयीं और अँग्रेजों के खिलाफ "हेराका आन्दोलन" की हिस्सा बन गयी। जिसका उद्देश्य था नागा जनजातीय धर्म का फिर से उत्थान करना और ब्रिटिश शासन का अन्त कर स्वशासित नागा राज स्थापित करना। जादोनाग अपने आन्दोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते उससे पहले ही अँग्रेजी सरकार ने मणिपुर के कुछ व्यापारियों की हत्या का दोषी ठहराया और उन्हें फाँसी पर लटका दिये। जादोनाग के बाद अब स्वतन्त्रता के लिये चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व बालिका गाइदिनल्यू की हाथों में आ गया। उन्होंने खुले तौर पर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया। उस समय गाइदिनल्यू महात्मा गाँधी जी के आन्दोलन के बारे में सुनकर सरकार को किसी भी प्रकार का "कर" न देने की घोषणा की और नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके अँग्रेजों के विरूद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिये कदम उठाये। गाइदिनल्यू के तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर जनजातीय लोग उन्हें सर्वशक्तिमान देवी के रूप में मानने लगे थे। नेता जादोनाग को फाँसी दिये जाने के कारण लोगों में असन्तोष व्याप्त था।
गाइदिनल्यू ने उन लोगों को सही दिशा में मोड़ा। वह छापामार युद्ध और शस्त्र संचालन में अत्यन्त निपुण थी। उन्होंने नागाओं के ईसाई धर्म में रूपान्तरण का कड़ा विरोध किया। नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी गाइदिनल्यू को अपने साथियों के साथ भूमिगत होना पड़ा। सोलह वर्ष की इस बालिका के साथ केवल चार हजार सशस्त्र नागा सिपाही थे। जिनको लेकर भूमिगत गाइदिनल्यू ने अँग्रेजों का सामना किया। इस आन्दोलन को दबाने के लिये अँग्रेजों ने वहाँ के कई गाँव जलाकर राख कर दिये, लेकिन इससे लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ। सशस्त्र नागाओं ने एक दिन खुलेआम "असम राइफल्स" की सरकारी चौकी पर हमला कर दिया। स्थान बदलते अँग्रेजों की सेना पर छापामार प्रहार करते हुये गाइदिनल्यू ने एक इतना बड़ा किला बनाने का निश्चय किया जिसमें उसके चार हजार नागा साथी रह सकें। इस पर काम चल ही रहा था कि 17अप्रैल 1932 को अँग्रेजों की सेना ने अचानक से आक्रमण कर दिया और गाइदिनलियू को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और आजीवन कारावास की सजा हो गयी। सन् 1937 में जवाहरलाल नेहरू जी शिलांग जेल में उनसे मुलाकात की और उनकी रिहाई को आगे बढाने का वादा किया था। 1947 में देश स्वतन्त्र होने के बाद 14 वर्ष तक जेल में रहने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जेल से रिहाई के बाद भी वे समाज की बेहतरी के लिये समाज सेवा करती रहीं।
 देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी ने उन्हें "पहाड़ों की बेटी" कहा था और रानी "क्वीन" की उपाधि दी थी। अँग्रेज उन्हें बहुत खूंखार नेता मानते थे, दूसरी ओर जनता का हर वर्ग उन्हें अपना उद्धारक मानता था। "हेराका" संस्कृति को बचाये रखने के लिये उन्होंने सिर्फ अँग्रेजों से ही नहीं लड़ा बल्कि अपने ही समाज के अलगाववादियों का भी उन्हें सामना करना पड़ा। नागा समाज की आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता गाइदिनल्यू ने मणिपुर, नागालैण्ड और असम में अँग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आन्दोलन की अगुवाई की। उन्होंने अपने जीवन के शुरूआती दिनों में जिस तरह से वीरता और अदम्य साहस का परिचय दिया था। उसके चलते उन्हें "नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई" के तौर पर जाना जाने लगा। वे जब तक आज़ाद रहीं अँग्रेजों की नाक में दम कर रखा था ऊपर से उनकी बढती लोकप्रियता ने ब्रिटिश हुकूमत को परेशान कर दिया था। वह जब तक जेल से बाहर रहीं तीर कमान और भालों से ही अँग्रेजों की बंदूकों का मुक़ाबला किया। सत्रह फरवरी 1993 में इस वीरांगना की मृत्यु हो गयी। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इस महान वीरांगना के साहसपूर्ण योगदान के लिये 1972 में भारत सरकार द्वारा "स्वतन्त्रता सेनानी ताम्रपत्र" एवम् 1982 में "पद्म-भूषण" से सम्मानित किया गया। 1983 में "विवेकानन्द सेवा सम्मान" और 1996 में विरसा मुंडा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
सन् 1996 में ही इनकी स्मृति में भारत सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया और 2015 में एक स्मारक सिक्का भी जारी किया। असम सरकार ने इस नागा स्वतन्त्रता सेनानी के सम्मान में एक पार्क विकसित किया है, जिसमें उनकी एक प्रतिमा भी लगायी गयी है। 24 अगस्त 2015 में उनकी जन्म - शताब्दी समारोह का आगाज करते हुये देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन्हें "रानी माँ" कहकर सम्बोधित किया था। इनके नाम पर "स्त्री शक्ति पुरस्कार" शुरू किया गया तथा भारतीय तटरक्षक के एक जहाज का नाम भी "रानी गाइदिनल्यू" के नाम पर रखकर इन्हें सम्मानित किया गया है। "रानी गाइदिनल्यू" का सम्पूर्ण जीवन ही हम सभी के लिये प्रेरणादायी है।

आइये इस वीर साहसी महान आदिवासी स्वतन्त्रता सेनानीे को हम सैल्यूट करें! सादर नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता की जय!

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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