आजादी का अमृत महोत्सव : जानिए हाड़ी रानी और बेगम हजरत महल को : भारत की महान वीरांगनाएं

 

                !!देश की आज़ादी के 75वर्ष!! 

"आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज मैं भारत के इतिहास की उस राजस्थानी वीरांगना की कहानी बताने जा रही हूँ जिसने' अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिये ऐसा बलिदान दिया जो किसी के लिये भी करना तो दूर सोचना भी मुमकिन नहीं है। भारत के इतिहास की एक साहसिक कहानी। "हाड़ी रानी" - राजस्थान की एक ऐसी वीरांगना जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने विवाह के सात दिन बाद ही अभी हाथों की मेंहदी भी नहीं छूटी थी खुद अपने ही हाथों से अपना सिर काटकर अपनी निशानी पति के पास रणभूमि में भिजवा दिया था। तारकेश्वर टाईम्स 75 वीरांगनाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव 

8 - हाड़ी रानी  हाड़ी रानी का जन्म हिन्दुओं के पवित्र त्योहार बसन्त पंचमी के दिन हुआ था। इनके पिता का नाम - राणा उदय सिंह और माता का नाम - जयन्ताबाई था। हाड़ी रानी का विवाह राजस्थान के उदयपुर (मेवाड़) के सलुम्बर के सरदार राव रतन सिंह चूड़ावत से हुआ था। हाड़ी रानी की इस कहानी में एक अमर प्रेम कथा छिपी हुई है। यह उस समय की बात है जब मेवाड़ पर महाराणा राज सिंह का शासन था। इनके सामन्त सलुम्बर राव रतन सिंह चूड़ावत थे, जिनसे हाल ही में हाड़ा राजपूत की बेटी की शादी हुई थी। किंवदंतियों के अनुसार हाड़ी रानी की शादी रतन सिंह चूड़ावत से हुये अभी महज सात दिन ही हुये थे, कि उनके पति को युद्ध पर जाने का फरमान आ गया। जिसमें महाराणा राज सिंह ने रतन सिंह चूड़ावत को दिल्ली से औरंगजे़ब की सहायता के लिये आ रही अतिरिक्त सेना को रोकने का निर्देश दिया था। रतन सिंह चूड़ावत को यह संदेश उनके मित्र शार्दुल सिंह लेकर आये थे। पत्र पढकर चूड़ावत रतन सिंह का मन व्यथित हो गया कि अभी विवाह को सात दिन हुये और पत्नी से बिछड़ने की घड़ी आ गयी। कौन जानता है युद्ध में क्या होगा ? एक राजपूत रणभूमि में अपने शीश का मोह त्यागकर उतरता है और ज़रूरत पड़ने पर सिर कटाने से पीछे नहीं हटता।

औरंगज़ेब की सेना तेजी से आगे बढ रही थी इसलिये उन्होंने अपनी सेना को युद्ध की तैयारी का आदेश दे दिया था। रतन सिंह चूड़ावत इस संदेश को लेकर अपनी पत्नी हाड़ी रानी के पास पहुँचे और सारी कहानी सुनाई तो रानी हाड़ी को भी खबर सुनकर सदमा लगा, लेकिन उन्होंने खुद को सँभाल लिया और अपने पति को युद्ध में जाने के लिये तैयार किया और उनके लिये विजय की कामना के साथ उन्हें युद्ध के लिये विदाई की। सरदार रतन सिंह अपनी सेना लेकर चल पड़े, किन्तु मन में बार बार खयाल आ रहा था कि सचमुच में पत्नी मुझे भूल न जाये। वह मन को समझाते परन्तु उनका ध्यान उधर ही चला जाता। आखिर सरदार रतन सिंह चूड़ावत से रहा नहीं गया और रास्ते से ही उन्होंने अपनी पत्नी के पास एक संदेशवाहक भेज दिया। पत्र में लिखा प्रिय, मुझे मत भूलना मैं लौटकर ज़रूर आऊँगा मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही है। अगर सम्भव हो तो अपनी कोई प्रिय निशानी भेज देना, उसे ही देखकर मन हल्का कर लूँगा। पत्र पढकर रानी हाड़ी सोच में पड़ गयीं कि अगर मेरे पति इसी तरह मोह से घिरे रहे तो शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे ? रानी हाड़ी ने संदेशवाहक को एक पत्र देते हुये कहा कि "मैं तुम्हें अपनी अन्तिम निशानी दे रही हूँ इसे थाल में सजाकर सुन्दर वस्त्र से ढककर मेरे वीर पति को दे देना, किन्तु याद रखना उनके सिवा इसे कोई और न देखे!" पत्र में रानी हाड़ी ने अपने पति को लिखा था कि - तुम्हें मेरे मोह के बन्धनों से आज़ाद कर रही हूँ, अब बेफिक्र होकर अपने कर्तव्य का पालन करना। मैं स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूँगी।
पत्र संदेशवाहक को देकर रानी हाड़ी ने अपनी कमर से तलवार निकाली और एक ही झटके में अपना सिर धड़ से अलग कर दिया। संदेशवाहक की आँखों में आँसू निकल पड़े। स्वर्ण थाल में रानी हाड़ी के कटे सिर को सुहाग की चुनरी से ढककर संदेशवाहक भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। संदेशवाहक को देख राव रतन सिंह चूड़ावत ने पूछा क्या तुम रानी की निशानी ले आये ? संदेशवाहक ने अपने काँपते हाथों से थाल उनकी तरफ बढा दिया। रतन सिंह फटी आँखों से देखते रह गये उनके मोह ने उनकी सबसे प्यारी चीज़ छीन ली थी और इस तरह रतन सिंह का मोह भंग हो गया और उनकी जो सबसे प्यारी चीज थी सीने से लगा ली। अब उनके पास जीने का कोई औचित्य ही नहीं बचा था अब चूड़ावत रतन सिंह के मोह के सारे बन्धन टूट चुके थे। रतन सिंह अपनी सबसे प्यारी चीज खो देने के बाद वह दुश्मनों पर पूरी ताकत से टूट पड़े और औरंगजेब की सेना को तहस नहस कर दिया था। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन था जीवन की आखिरी साँस तक लड़ते रहे औरंगजे़ब की सहायक सेना को आगे नहीं ही बढने दिया जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गये। इस जीत का श्रेय सिर्फ उनके शौर्य को नहीं बल्कि रानी हाड़ी के उस बलिदान को भी जाता है जो अब तक के इतिहास का सबसे बड़ा बलिदान है और अविस्मरणीय भी!

मेवाड़ की रानी की वीर गाथा वाकई लोगों को प्रेरणा देने वाली है और त्याग बलिदान को जगाने वाली है। रानी हाड़ी ने अपने पति को जीतने के लिये न सिर्फ प्रेरित किया बल्कि एक ऐसा बलिदान दिया जिसे शायद ही कोई बहादुर से बहादुर करने की हिम्मत न उठाये। हाड़ी रानी भारत के इतिहास की वह वीर क्षत्राणी हैमट जिन्होंने अपने पति के मन की दुविधा को दूर करने के लिये अपने पति की मृत्यु से पहले ही सती हो गयी थीं। हाड़ी रानी की अपनी मातृ भूमि के लिये बलिदान हम सभी के लिये प्रेरणादायी है। राजस्थान में लोग उनकी पूजा करते हैं और लोकगीत गायक उनकी वीरता और साहस के बारे में गीतों में उनकी कहानी बताते हैं। हाड़ी रानी राजस्थान में विभिन्न कहानियों, कविताओं के साथ उनकी कहानी राजस्थान के पाठ्यक्रम का हिस्सा है। ऐसी महान त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति "हाड़ी रानी" को मेरा सादर शत शत नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता की जय!

9 - बेगम हजरत महल आज मैं 1857 की क्रान्ति में कूदने वाली भारत की पहली महिला स्वतन्त्रता सेनानी से रूबरू कराने जा रही हूँ, जिसने 1857 में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की लड़ाई को आगे बढ़ाया और अँग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया। इस वीरांगना का नाम है - "बेगम हजरत महल" - ताज़दार-ए अवध के नवाब वाज़िद अली शाह की दूसरी पत्नी थीं बेगम हजरत महल। इनका जन्म 1820 ई. में अवध प्रान्त के फैजाबाद जिले के छोटे से गाँव में बेहद गरीब परिवार में हुआ था। बचपन में इनका नाम मुहम्मदी खानम था। गरीबी की वजह से इनके माता पिता इनका पेट भी नहीं पाल सकते थे। इनके परिवार की स्थिति इतनी दयनीय थी जिसके कारण बचपन में ही इनके माता पिता ने इन्हें शाही दलालों को बेच दिया। उसके बाद उसे शाही हरम ले जाया गया। ये वहाँ एक खवासिन के रूप में काम करने लगी। उसके बाद शाही हरम की "महक परी" के रूप में पहचानी जाने लगी। एक बार जब अवध के नवाब ने इन्हें देखा तो वे महक परी की सुन्दरता पर मुग्ध हो गये और अपनी बेगम बना लिया। कुछ दिन बाद इन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम बिरजिस कादर ऱखा गया और इसी पुत्र के नाम पर बेगम को "हज़रात महल" की उपाधि मिली।

तभी से इनका नाम मुहम्मदी खानम से बदलकर "बेगम हज़रत महल" रखा गया था। काफी संघर्ष भरा जीवन जीने के बाद नवाब की बेगम के जीवन में खुशहाली आयी थी, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पायी। कुछ समय बाद 1856 में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी (अँग्रेजी सरकार) ने अवध पर हमला कर दिया अवध को अपने कब्ज़े में ले लिया। ताज़दार - ए - अवध वाज़िद अली शाह को बन्दी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया। जिसके बाद पहली बार बेगम हजरत महल ने अवध पर शासन करने का फैसला किया और अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को राजगद्दी पर बिठाकर अवध राज्य की सत्ता सँभाली और 7 जुलाई 1857 ई. में उन्होंने अँग्रेजों के खिलाफ रणभूमि में उतर गयीं। वे एक कुशल रणनीतिकार थीं जिनके अन्दर एक सैन्य युद्ध कौशल समेत कई गुण विद्यमान थे। उन्होंने अँग्रेजों के चंगुल से अपने राज्य को बचाने के लिये अँग्रेजी सेना से वीरता के साथ डटकर मुकाबला किया था। बेगम हज़रत महल सभी धर्मों को समान रूप से देखती थीं। वे धर्म के आधार पर कभी भेदभाव नहीं करती थीं। उन्होंने अपने सभी धर्मों के सिपाहियों को भी समान अधिकार दिये थे। इतिहासकारों का मानना है कि वे अपने सिपाहियों का हौसला बढाने के लिये खुद ही युद्ध मैदान में चली जाती थीं। हज़रत महल की सेना में महिला सैनिकों का दल भी शामिल था जो उनकी सुरक्षा कवच थी। सन 1857 में जब विद्रोह शुरू हुआ तो बेगम हजरत महल ने अपनी सेना और समर्थकों के साथ ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिये।
बेगम हजरत महल के कुशल नेतृत्व में उनकी सेना ने लखनऊ के पास चिनहट, दिलकुशां में हुई लड़ाई में अँग्रेजों के छक्के छुड़ाने में कई राजाओं ने साथ दिया था। वहीं राजा जयलाल और राजा मानसिंह ने भी इस लड़ाई में बेगम हज़रत महल का साथ दिया था। इस लड़ाई में बेगम हज़रत महल ने हाथी पर सवार होकर अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। इस भयानक युद्ध के कारण अँग्रेजों को लखनऊ रेजीडेन्सी में छिपने के लिये मजबूर होना पड़ा था। हालांकि बाद में अँग्रेजों ने ज्यादा सेना और हथियारों के बल पर एक बार फिर से आक्रमण कर दिया और लखनऊ व अवध के ज्यादातर हिस्सों में अपना अधिकार बना लिया जिसके चलते बेगम हज़रत महल को पीछे हटना पड़ा और अपने महल को छोड़कर जाना पड़ा। इस हार के बाद वे अवध के देहातों में जाकर लोगों को अँग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिये एकत्रित करती रहीं। उन्होंने अवध के जंगलों को अपना ठिकाना बनाया। इस दौरान उन्होंने नानासाहेब और फैजाबाद के मौलवी के साथ मिलकर शाहजहाँपुर में भी आक्रमण किया और गुरिल्ला युद्ध नीति से अँग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। ऐसा कहा जाता है कि वे पहली ऐसी बेगम थीं जिन्होंने लखनऊ के विद्रोह में हिन्दू मुस्लिम सभी राजाओं और अवधकी आवाम के साथ मिलकर अँग्रेजों को पराजित किया था। बेगम हज़रत महल ने ही सबसे पहले अँग्रेजों पर मुस्लिमों और हिन्दुओं के धर्मं में फूट और नफ़रत पैदा करने का आरोप लगाया था।
अँग्रेजों के साथ लड़ाई के दौरान मौलाना अहमद शाह की हत्या कर दी गयी थी, जिसके बाद बेगम हज़रत महल अकेली पड़ गयीं और उनके पास अब अवध छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। उसी समय अँग्रेजों ने बादशाह बहादुर शाह जफ़र को कैद कर रंगून भेज दिया। हालात काफी बिगड़ चुके थे लेकिन इसके बाद भी बेगम हज़रत महल नहीं चाहती थीं कि अँग्रेजों की बंदी बनें, इसलिये वे अपने बेटे के साथ नेपाल चली गयीं। नेपाल क राजा राणा जंगबहादुर भी बेगम हज़रत महल के साहस और स्वाभिमान से काफी प्रभावित थे, इसलिये बेगम हज़रत महल को शरण दी। यहाँ पर वे अपने बेटे के साथ एक साधारण महिला की तरह जीवन व्यतीत करने लगीं और यहीं पर उन्होंने 1879 में अपनी अन्तिम सांस ली। काठमाण्डू के जामा मस्जिद में इनका शव दफ़ना दिया गया। पन्द्रह अगस्त 1962 को बेगम हज़रत महल को लखनऊ के हजरतगंज में ओल्ड विक्टोरिया पार्क में महान विद्रोह में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिये सम्मानित किया गया। इस महान वीरांगना को मेरा सादर शत शत नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता की जय!

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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