बालीवुड की अजीम हस्ती दिलीप कुमार नहीं रहे

 

                         (संतोष दूबे) 

मुंबई। भारतीय सिनेमा जगत के मशहूर अभिनेता यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार का आज सुबह हिंदुजा अस्पताल में निधन हो गया। ये करीब 98 साल के थे। इनके निधन से बालीवुड में शोक की लहर दौड़ गयी। सिनेमा बनते रहेंगे, तारे चमकते रहेंगे, लेकिन ध्रुव तारे दिलीप कुमार की कमी शायद ही कभी पूरी हो पाए। सिर्फ एक लफ्ज़ में दुनिया भरने वाला कभी कोई अभिनेता दोबारा होगा, बहुत मुश्किल लगता है। इंसानी इमोशन ,भाव का इतना बड़ा चितेरा जो इंच इंच, तोला तोला भाव को नाप कर, जी कर अभिनय करता रहा हो, ऐसे दिलीप कुमार को नमन।

हक़ हमेशा सर झुका के 'नही, सर उठा के माँगा जाता है"। बरसों पहले सौदागर मे अपने ख़ास अंदाज़ मे बोले गये इस संवाद को खुद्दारी से जीने वाले भारतीय सिनेमा के महानतम अभिनेता युसुफ ख़ान उर्फ दिलीप कुमार यूं ही महान नही है। अपनी बुनियाद मे खरे सोने से खुद्दारी और हुनर का परचम थामे दिलीप कुमार को बचपन में अच्छी शिक्षा ज़रूर मिली, लेकिन पेशावर से मुंबई आए गुलाम सरवर के घर का एक चिराग, फलो की मिठास को अपनी ज़हीन उर्दू अदाएगी के ज़रिए हिन्दुस्तान के गोशे गोशे मे फैलाना चाहता था। खुद पर यकीन इतना कि पिता गुलाम सरवर की चुभती बात पर मुंबई छोड़ पुणे की आर्मी कॅंटीन मे सैंडविच का स्टॉल लगाना मंज़ूर किया। पसीने की महक से भीगे 5000 रुपये लेकर जब युसुफ ख़ान वापस मुंबई पहुचे तो ज़िंदगी कुछ और इशारा कर रही थी। अपने अंदाज़ मे बिल्कुल अलहदा युसुफ पर डाक्टर मसानी की नज़र पड़ी जो उन्हें बॉम्बे टाकीज़ ले गये। बॉम्बे टाकीज़ मे उस दिन देविका रानी ने धुले धुले से आसमान मे खिला खिला सा एक सितारा देख लिया। अपनी पहली फिल्म ज्वार भाटा से अपने अंदर के समंदर थामने की कोशिश करते युसुफ ख़ान पहली फिल्म मे अपना कुछ ख़ास जादू नही जगा पाए। दादा मुनि की सलाह और अपनी शख्सियत के ख़ास अंदाज़ से युसुफ ख़ान ने जो किया उसने भारतीय सिनेमा मे नये राग को जन्म दे दिया। अब युसुफ बेहद स्वाभाविक सहज होने के बावजूद संवाद अदाएगी मे ख़ास होने की वजह से युसुफ से दिलीप कुमार मे तब्दील होने लगेे।
भारतीय आज़ादी के साल 1947 मे आई फिल्म जुगनू ने अभिनय की नीले आकाश मे एक ऐसा ध्रुव तारा दे दिया जिसने हज़ारो सितारों के बीच मे अपनी अलग जगह बना ली। 1949 में आयी अंदाज़ ने दिलीप कुमार को अलग अलग परतो में बाँट दिया।मोहब्बत में एक तरफ़ा चाहत के दंश को झेलते दिलीप , कई बार दर्द के दरिया में डूबते दिखे। नरगिस की मोहब्बत में हर दिन टूट रहे दिलीप आखिर अपने दिल की पुकार, नरगिस को सुनने उसके घर जाते है। दिलीप का दिल , एक वक़्फ़े को धड़कना बंद कर देता है जब उसे , नरगिस के मंगेतर , राज कपूर का पता चलता है। फिल्म के आखिरी में दिलीप कुमार, नरगिस के हाथो मरकर, अपने अभिनय को अमर कर देते हैं। शहीद से गुज़रते हुए दिलीप कुमार ने देवदास तक पहुंचते पहुंचते एक ऐसी शख्सियत का रूप धरा जिसे पर्दे पर देख लोग उसके गम को अपना गम समझने लगेे। मेथेड एक्टिंग के उरूज़ पर दिलीप कुमार अभिनेता से चरित्र मे इस कदर घुलते जैसे दूध मे चीनी। इस चरित्र का दिलीप कुमार पर ऐसा असर भी पड़ा की दिलीप कुमार को महीनो अपना इलाज़ लंदन मे कराना पड़ा। उदास बादलों मे कतरा कतरा मुस्कुराता दर्द जब दिलीप के होंठो पर नाचता, लोग उस दर्द को अपना मान, दिलीप कुमार के हमदर्द हो जाते। देवदास में पारो की शादी के बाद बिखरते देवदास ( दिलीप कुमार ) जब चंद्रमुखी के सामने ये कहते हैं 'वो शादी के रास्ते चली गयी ...मैं बर्बादी के, तो हर प्रेमी का दिल, उसके हलक में आ जाता है। मेलेन्कोलिक प्रेम की इस दास्ताँ में दिलीप ने खुद को हर, दर्द, और सेल्फ डिस्ट्रक्शन का पर्याय बना दिया।
नया दौर में जहाँ तांगे और बस की लड़ाई के बीच गुंथा हुआ प्यार कहानी को एक अलग रोमांच देता है, वहीं मधुमती में दिलीप कुमार के दिल में इस कदर प्यार भरा होता है कि उसे पाने में दो जन्म लग जाते है। पुनर्जन्म की कहानी में हॉन्टेड की मोहब्बत भरी अपील के साथ दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला के साथ अपने रिश्ते को गाढ़ा करते चलते है। मुगले-आज़म ने दिलीप को ऐसे ऐतिहासिक और कल्पना के मेल जोल वाले किरदार का जामा पहनने का मौका दिया जिसने दिलीप साब के दिल में अनारकली के बेहद करीब जाने का भी अवसर दे दिया। मधुबाला से हुई मोहब्बत के परवान चढ़ने से पहले मुग़ले आज़म की तरह असल ज़िंदगी मे भी दिलीप कुमार के हाथ खाली रहे। सेहरा के रेत मे प्यासे होंठ जब सूख गये थे तो एक कच्चे से बादल ने सेहरा को सराबोर कर दिया। ये सायरा थी जिसने दिलीप साब के पेशानी पर अपना हाथ इस तरह फिराया वो मुक़द्दर की लकीर मे हमेशा के लिए शामिल हो गयीी। गंगा जमुना में दिलीप दो कदम ऊपर उठाकर , आसमान को छूने लगेे। मशाल और शक्ति में ऑथर बैक्ड किरदार को इस शिद्दत से निभाया की सालों तक दिलीप कुमार की आवाज़, कानो में गूंजती है। शक्ति में अमिताभ के सामने खड़े दिलीप ने हर फ्रेम में अपने क़द से होकर, अमिताभ को ज़बरदस्त टक्कर दी। कई दृश्य में दिलीप साब ने अपने किरदार में ऐसा लोहा भरा की अमिताभ की कद्दावर शख्सियत भी घुटने टेकते दिखी।
 शक्ति के एक दृश्य में पुलिस अफसर पिता दिलीप कुमार, बेटे अमिताभ की बगावत से लड़ते लड़ते एक दिन टूट जाते हैै। घर लौट के पत्नी राखी से लिपट कर सुबक उठते है। उनके इस दर्द में देश के लगभग सभी पिताओं के नौजवान बेटे के विद्रोह से उभरा कष्ट दिखाई देता है। राखी से सुबकते हुए दिलीप, जब ये कहते है कि हमारी परवरिश में कहाँ कमी रह गयी थी, जिससे विजय ऐसे रास्ते पर चला गया। इस दृश्य को अपने अभिनय के संतुलन से दिलीप ने इतना उरूज़ दिया कि कई सिनेमा स्कूल का ये दृश्य, एक मुकम्मल चैप्टर बन गया। ऐसे ही मशाल फिल्म में अपनी पत्नी वहीदा रहमान को अस्पताल पहुंचाने के लिए, मुंबई की भीगी अँधेरी रात में एक अदद गाड़ी की पुकार में इतने कातर हो गए की हर दर्शक की आँख, गंगा जमुना हो गयी। लगभग साढ़े 4 मिनट के इस दृश्य में, सड़क पर दौड़ती कारों के आगे दिलीप कुमार का असहाय बेबस चेहरा, आपको ऐसे दर्द में भिगो देता है की हर शख्स, सिनेमा हाल से लौटकर, अपनी पत्नी की लम्बी उम्र के सजदे में बैठ जाता है। दिलीप कुमार को उनके दर्द, विछोह में डूबे हुए किरदारों वजह से ट्रेजेडी किंग की उपाधि दी गयी, लेकिन बेहद वर्सटाइल दिलीप, कॉमेडी में भी उतने ही सिद्धहस्त थे। 

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