दो दिलों का मिलन है प्रेम
कबीर कहते हैं 'प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय ! राजा पिरजा जेहि रुचे, शीश देई लेजाए !!' अर्थात् प्रेम ना तो खेत में पैदा होता है और न ही बाजार में बिकता है। राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानी सर्वस्व त्याग कर प्रेम प्राप्त कर सकता है।
सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग प्रेम के लिये आवश्यक है। लेकिन आज विडंबना इस बात की है प्रेम को सिर्फ भोग की दृष्टि से देखा जाने लगा है। अब केवल किसी की बाहरी सुंदरता को देखकर उससे प्रेम किया जाने लगा है। अतः आज हमारे लिए प्रेम का तकाजा पूरी तरह बदल चुका है। पदार्थों के बाह्य आकर्षण पर मुग्ध होने का ये भाव हमारे जीवन में भोग व हवस की भूख को बढ़ाता जा रहा है। इसलिए आजकल शादियां टूट रही हैं, तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। पारिवारिक जीवन में तनाव दस्तक दे रहा है। कारण यही है कि हमने बाह्य आकर्षण की तृष्णा में व्यक्ति के आचरण, उसकी आदतों और विचारों को देखने का प्रयास ही नहीं किया। आज के इस उपभोक्तावादी युग में व्यक्ति हर चमकती चीज को सोना समझकर उसे पाने के लिए लालायित हो उठता है। और अपने अथक परिश्रम और आड़े टेढ़े प्रयासों से वह उसको पा भी जाता है। लेकिन पाने के बाद उसे धीरे-धीरे उससे घृणा होनी शुरू हो जाती है। एक समय के बाद वह उससे छुटकारा पाना ही समस्या का समाधान समझने लगता है। ऐसे व्यक्ति की नजर में प्रेम केवल एक व्यापार है। वह प्रलोभन से देह को खरीद सकता है लेकिन अमूल्य प्रेम की कीमत कभी अदा नहीं की जा सकती है। इस बात से वह परे रहता है। अतः प्रेम में देह नहीं दिल महत्वपूर्ण है। और यही दिल हर किसी को दिया नहीं जा सकता।