आजादी का हीरो गुमनाम क्यों ? नेताजी की जयंती

तारकेश्वर टाईम्स (हि0दै0)


नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जी की 123वीं जयंती पर विशेष


               ( पंकज त्रिपाठी )



दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल.......
इस निरर्थक और बेबुनियाद बात को तो हम लगातार आज तक ढोये जा रहे हैं। लेकिन आजादी के जंग के कई असली हीरो आज इतिहास के पन्नो में दफन हो गये हैं, उनकी चर्चा तक नही हो पाती, न ही उनके जीवन चरित्र को बच्चों को पढ़ाया और बताया जाता है।
उन्ही सच्चे हीरो में एक नाम आता है नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिये दुनिया के कई देशों से फौज बनाकर भारत मे जंग शुरू करने वाले नेता जी गुमनाम हो गये। बेताज बादशाह हिटलर भी जिनसे प्रभावित होकर एक घटना में माफी मांग चुका हो, ऐसा आजादी का हीरो अपने ही देश मे गुमनाम है।
नेता जी के नाम से जयन्ती को अब सरकारी कागजों में भी समाप्त कर दिया गया, उनकी जयंती पर उत्सव लगभग समाप्त से हो गये हैं। बस्ती जैसे शहर में गाँधी कला भवन के सामने लगी नेता जी की मूर्ति पर फूल माला चढ़ाने के शिवा और कोई गोष्ठी आदि न तो सरकार या सूचना विभाग द्वारा आयोजित होती है न ही विद्यालयों में कोई उत्सव हो पाता है।
हमने ऊपर की शुरुआत की लाइनों में गाँधी की आजादी की लड़ाई को नकारा है-
आइये एक सच्ची घटना जो गांधी और सुभाष जी दोनों के साथ घटी, उसके द्वारा कुछ जानते हैं। आज़ादी के पहले ट्रेन के फर्स्ट क्लास में अगर कोई अंग्रेज़ सफर कर रहा हो तो कोई भारतीय उस डिब्बे में नहीं बैठ सकता था अगर बैठता था तो उसे अपमानित किया जाता था। गांधी की घटना काफी प्रचारित हुई और सब जानते हैं कि गांधी को सामान सहित डिब्बे से बाहर फ़ेंक दिया गया था और वो प्लेटफार्म पर ही धरने पर बैठ गए थे ! 



अब नेता जी का प्रकरण !
सुभाष फर्स्ट क्लास डिब्बे में बैठे ! अकेले थे ! बाद में एक अंग्रेज़ महिला चढ़ी ! वो भारतीय देखकर आग बबूला हो गयी ! उसने कहा कि तुम काला आदमी इसमें कैसे आया ! अगले स्टेशन पर उतर जाना ! सुभाष बाबू चुपचाप बैठे रहे ! वो फिर चिल्लाई कि अगर तुम डिब्बे से नहीं उतरोगे तो मैं चिल्लाऊंगी कि तुमने मेरे साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की ! सुभाष बाबू ने उसको इशारों में बताया कि वह सुन नहीं पाते हैं, बोल नहीं पाते हैं, गूंगे और बहरे हैं !  इसलिए जो कह रही हो वो लिखकर दो ! उसने लिखकर दिया ! नेताजी ने उसे पढ़ा भी नहीं और जेब में रख लिया ! वोह चिल्लाई -अरे इसे पढो तो ! अब बोले नेताजी ! मैडम अब आप बताइये कि अगले स्टेशन पर कौन उतरेगा ? वो महिला हैरत में थी ! कहने की बात नहीं कि अगले स्टेशन पर अंग्रेज़ महिला चुपचाप उतर गयी !
(मासिक पत्रिका कादम्बिनी से साभार)


"हमारा कार्य आरम्भ हो चुका है, दिल्ली चलो के नारे के साथ हमें तब तक अपना श्रम और संघर्ष समाप्त नही करना चाहिये, जब तक की दिल्ली में 'वायसरॉय हाउस' पर राष्ट्रीय ध्वज नही फहराया जाता है और आजाद हिन्द फौज भारत की राजधानी के प्राचीन 'लाल किले' में विजय परेड नही निकाल लेती है।"
इतने बड़े स्वप्न्न को लेकर चलने वाले महानायक के साथ पूरे जीवन राजनीति होती रही। यह सही है कि नेताजी ने जो सोचा होगा उस योजना से सब कुछ नहीं हो सका, क्योंकि नियति की योजना कुछ और थी मगर यह आश्चर्यजनक है कि उस वायसराय भवन पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराने और लाल किले पर भारतीय सेना की परेड़ निकालने का अवसर महज चार वर्ष बाद ही 15 अगस्त 1947 को नेताजी की ही आजाद हिन्द फौज की गिरफ्तारी के कारण उत्पन्न सैन्य विद्रोह और राष्ट्र जागरण के कारण ही मिल पाया और आज हम आजाद हैं।
यद्यपि नेताजी की कथित तौर पर मृत्यु 18 अगस्त 1945 को हवाई दुर्घटना में हो चुकी है। मगर उसे महज एक युद्ध कूटनीति की सूचना ही मानी जाती है, उनकी मृत्यु के सही तथ्य पता लगाने के लिये तीन कमीशन बनाये गये, शहनबाज कमीशन 1956, खोसला कमीशन 1970 से 74 तक, और तीसरा जस्टिस मुखर्जी कमीशन जिसने 2005 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। मगर नेताजी की कथित मृत्यु का रहस्य नहीं खोजा जा सका है। मुझे याद है कि मैं जब बस्ती के ओरीजोत में एक किराये के कमरे में रहता था उस वक्त मैंने स्वर्गीय श्री बालेश्वर सिंह जी के द्वारा दी गई पुस्तक सुभाषवाद और विवेकवाद पढ़ी थी, जिसमें दावे किये गए थे कि नेता जी जीवित हैं, नेहरू के मृत्यु के दौरान दर्शकों में बौद्ध भिक्षु के रूप में नेता जी के चित्र की बात हो या नेता जी के द्वारा किसी साथी को भेजे गये पत्र में ये कहना कि "मेरी मृत्यु के समाचार ने ही मुझे जीवित रखा है, आजादी के बाद भी एक और क्रांति की आवश्यकता है जो क्रांति मैं लाऊँगा"।
सांसद सुब्रत बोस ने नेताजी की रहस्यमय मौत के संदर्भ को लोकसभा में प्रश्न उठाया और मुखर्जी आयोग के सच को सामने लाने की बात कही। उन्होंने यह रहस्य उजागर भी किया कि उस दिन हवाई दुर्घटना हुई ही नहीं थी।
ताईवान सरकार कहती है कि 18 अगस्त 1945 के दिन पूरे ताईवान में कहीं कोई हवाई दुर्घटना नहीं हुई है। 



अर्थात जब दुर्घटना नहीं हुई तो मृत्यु कैसी, मृत्यु का सर्टिफिकेट देने वाला कोई, चिकित्सक अथवा उनका अंतिम संस्कार करने वाले की पुष्टि नहीं होती है। सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि 18 अगस्त की हवाई दुर्घटना की प्रथम सूचना, पूरे पांच दिन बाद जापानी रेडियो से 22 अगस्त को प्रचारित की गई थी, अर्थात इतने बडे नेता के निधन की सूचना में इतना विलम्ब गले नहीं उतरता है।
जिसने जनता के एक इतने बड़े नेता गाँधी से बगावत करके अलग रास्ता अपना लिया हो वह नेता कैसे डर सकता है, कैसे छुप सकता है।
इतना तो स्पष्ट है कि नेताजी का जो व्यक्तित्व रहा है, चाहे वह कांग्रेस के मंच पर रहा हो अथवा कांग्रेस से बाहर व देश से बाहर विदेशों में रहकर देशहित के मंच पर रहा हो, यह शेर किसी चूहे की तरह छिपने वाला न था और न ही छिपा होगा। यह अवश्य हो सकता है कि उनके साथ कोई कूटनीतिक दुर्दान्त दुर्घटना घटी हो। जैसे कि वे किसी शत्रु राष्ट्र की किसी गुप्तचर एजेंसी के हाथ पड़ गये हों, उनका अपहरण हो गया हो, उन्हें कूटनीतिक कारणों से किसी अज्ञात जेल में डाल दिया गया हो या उनकी कहीं और हत्या कर दी गई हो। क्योंकि ब्रिटिश गवरमेंट की दृष्टि में भारत में सुभाष चन्द्र बोस से बड़ा उनका काई शत्रु नहीं था और आयरिश इतिहासकार यूनन ओ हैल्विन इसका रहस्योद्घाटन करते है।
ब्रिटिश सरकार ने नेताजी की हत्या के आदेश दिये थे।
इसी इतिहासकार ने कोलकाता में दिये एक भाषण में कई दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताया कि ‘‘जब 1941 में अचानक सुभाष नजरबंदी से गायब हो गए तो तुर्की में तैनात दो जासूसों को लंदन स्थित मुख्यालय से निर्देश दिया गया कि वे सुभाष चन्द्र बोस को जर्मनी पहुंचने से पहले खत्म कर दें। उन्होंने बताया कि ब्रितानी जासूस नेताजी तक नहीं पहुंच पाए, क्योंकि नेताजी मध्य एशिया होते हुए रूस के रास्ते जर्मनी पहुंच गए और वहां से वे जापान पहुंचे थे।’’
कोलकाता के एक अन्य इतिहासकार लिपि घोष का कहना है कि ‘‘अंग्रेजों ने बोस से मिलने वाली चुनौती का सही आंकलन किया था और इससे यह भी पता चलता है कि ब्रितानी हुकूमत उनसे कितनी घबरा रही थी।’’
21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिन्द की अस्थायी सरकार का गठन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अध्यक्षता में किया गया। इस सरकार का ब्यौरा इस प्रकार है:-
1. सुभाषचन्द्र बोस: राज प्रमुख, प्रधानमंत्री और युद्ध तथा विदेशी मामलों के मंत्री।


देशभक्ति गीत-
‘‘सूरज बनकर जग पर चमके,
भारत नाम सुभागा।
जय हो, जय हो, जय हो,
जय जय जय जय हो।।’’


राष्ट्रीय अभिवादन: जय हिन्द।


राष्ट्रीय ध्वज: चरखे के साथ तिरंगा


राष्ट्रीय चिन्ह: बाघ


नारा: ‘चलो दिल्ली’ ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘आजाद हिन्द जिंदाबाद’


लक्ष्य: ‘विश्वास-एकता-बलिदान’


आह्वान : - ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’’


आज हम इसी सोच और इसी बलिदानों के बल पर साँस ले रहे हैं।
22 दिसम्बर 1967 को लोकसभा में ‘आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैनिक’ विषय पर आधे घंटे की चर्चा की गई। चर्चा शुरू करते हुए सांसद समर गुहा ने कहा: ‘‘आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैनिकों के बारे में इस चर्चा का आरम्भ मैं इन महान सेनानियों और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की महान विरासत और उन लोगों को श्रृद्धासुमन अर्पित करते हुए करूंगा, जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया, बल्कि उन सभी 26,000 व्यक्तियों को श्रृद्धांजली अर्पित करूंगा जिन्होंने कोहिमा, इम्फाल और चटगांव के युद्ध क्षैत्रों को अपने प्राणों की आहूति दी।’’
नेता जी का सपना सच हुआ, उनकी शब्द सही निकले उन्होंने कहा था कि ‘‘भाईयों और बहनों! इस समय जबकि हमारे शत्रुओं को भारत की भूमि से खदेड़ा जा रहा है, आप पहले की ही तरह स्वतंत्र नर नारी होने जा रहे हैं। आज आजाद हिन्द की अपनी अस्थायी सरकार के चारों ओर एकत्रित हो जाइये और उससे आप नव प्राप्त स्वतंत्रता की सुरक्षा और संरक्षा में सहायता करें।’’



नियति का यह खेल देखिये की यह शब्द सही साबित हुए, दिल्ली में जब ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो पूरा देश इनकी सहायता के लिए उमड़ पड़ा था। गांधी जी के सारे सिद्धान्तों को ठोकर मारकर नेहरू और भूलाभाई देसाई ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों का केस लड़ने के लिए फिर से वकालत का कोट पहन लिया था। सेना के तीनों अंगों ने विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। केन्द्रीय विधान परिषद, संविधान सभा में आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार लोगों की बिना शर्त मुक्ति की बहसें हो रही थी। श्रमिकों ने काम बंद कर दिया था, जनता गली कूचों में जय हिन्द के नारे लगा रही थी। पूरा देश एक जुट होकर इन महान बलिदानियों के लिए मैदान में उतर आया था। काश ! उस समय नेताजी मौजूद होते...!! न पाकिस्तान बनता, न अंग्रेजों का षडयंत्र सफल होता ! पाकिस्तान सिर्फ इसलिये बना कयोंकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नेतृत्व हमें, 1947 में नहीं मिल सका।



हमने अखण्ड भारत आजाद करवाने के इस शुभ अवसर को क्यों छोड दिया, इसका जवाब तो कांग्रेस ही दे सकती है। मगर अंग्रेज समझ चुके थे कि अब भारत छोडना ही होगा। अगस्त 1946 में कलकत्ता की प्रसिद्ध मारधाड़ हुई, 2 सितम्बर 1946 को पं. नेहरू ने अंतरिम सरकार बनाई। मुस्लिम लीग ने आरम्भ में तो सम्मिलित होने से इंकार कर दिया, किन्तु बाद में वह सम्मिलित भी हुई और विभाजन में सफल भी हुई। यदि इस सैनिक विद्रोह के अवसर पर कांग्रेस ने चूक नहीं की होती तो देश अखण्ड आजाद होता। एक बार फिर सुभाष की आत्मा रोई होगी जब भारत की आजादी के जिस दस्तावेज पर नेहरू ने हस्ताक्षर किए थे उसमें यह भी लिखा था कि यदि बोस आजाद भारत में भी लौटेंगे तो उन्हें गिरफ्तार किया जाएगा। उन पर यूनाइटेड किंगडम के खिलाफ युद्द का अभियाेग चलाने का करार भी था। इसी से नेहरू और बोस के संबंधों को आंका जा सकता है।


असीम ऊर्जा की स्रोत है हमारी संस्कृति !
कुछ टाई पहनने वाले भारतीय यूरोपपंथी, कुतर्क के द्वारा हिन्दुत्व में, भारतीयता में, मीनमेख निकाल सकते हैं। वे इसे दरिद्र, पिछडी और हीनताग्रस्त ठहरा सकते हैं, मगर अमर सत्य यह है कि यह अक्षुण्य है..! क्योंकि इस संस्कृति में सत्य का आत्मविश्वास है, इस धरा ने आत्मविश्वास कभी खोया नहीं है और स्वतंत्रता संग्राम में जिस स्वतंत्रता नायक ने आत्म विश्वास नहीं खोया और अंतिम दौर तक लडता रहा और लडाई के फल को विजय में बदल गया, वह था सुभाष चंद्र बोस!! आज हम उन्हे नमन ही तो कर सकते हैं। उन्हे शत शत नमन्!


आइये अभी भी वक्त है हम नेता जी सुभाषचंद्र बोस के विचारों को फैलायें, बच्चों को बताएं, अपने स्कूलों में इस वर्ष कम से कम एक चित्र रखकर फूल माला चढ़ाएं अगले वर्ष उत्सव के रूप में मनायें। आजादी के सच्चे नायक को भूलना खुद से गद्दारी है इस बात को अपने जेहन में जीवित रखें।
क्योंकि कांग्रेस हो वर्तमान की भाजपा सरकार सभी को राजनीति करनी है सायद इसीलिए आज गाँधी नोटों पर हैं और सबसे पहले नोटों पर छपने वाले सबसे पहले प्रधानमंत्री सुभाष जी गुमनामी में।


नोट-यह लेख कई पुस्तकों और लेखकों के विचारों के कुछ अंशों का एक संकलन है जिसमे मैंने अपने विचार शामिल किये हैं।
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